शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

कोई तो बताये मेरी गुलाब को किसने मारा?

ई। 1761 में मेवाड़ी सरदार सिसी फ्रांसिसी सेनापति समरू को मेवाड़ पर चढ़ा लाये। तब से महाराणा और उसके सरदारों में आपसी संघर्ष का जो सिलसिला चला वह रजवाड़ों के मिट जाने के बाद ही समाप्त हो सका।


जिस समय अंग्रेज शक्ति देशी राज्यों की घेराबंदी करने की योजना बना रही थी, उस समय राजपूताना के देशी राज्य अनेक आंतरिक एवं बाह्य समस्यओं से जूझ रहे थे जिनमें से सबसे बड़ी और अंतहीन दिखायी देने वाली समस्या थी। राज्यों के सामंतों तथा जागीरदारों की अनुशासन हीनता और लूट खसोट की प्रवृत्ति। सामंतों तथा जागीरदारों ने राजाओं की नाक में दम कर रखा था तथा अधिकांश राजा अपने सरदारों के उन्मुक्त आचरण का दमन करने में सक्षम नहीं थे।


देशी राज्यों में राजा के उत्तराधिकारी को लेकर खूनी संघर्ष होते रहेते थे जिनके कारण राज्य वंश के सदस्य, राज्य के अधिकारी एवं जागीरदार दो या दो से अधिक गुटों में बंटे रहते थे। इन सब कारणों से राजपूताना के देशी राज्यों की आर्थिक, राजनैतिक एवं सामरिक दशा अत्यंत शोचनीय हो गयी थी।
राजपूताना के रजवाड़े और उनके अधीनस्थ जागीरदारों में विगत एक शताब्दी से भी अधिक समय से जबर्दस्त संघर्ष की स्थिति बनी हुई थी। जागीरदार अपने निरंकुश व्यवहार का निशाना न केवल निरीह जनता को बनाते रहे थे अपितु वे रियासत के शासकों की भी उपेक्षा करके मनमाना व्यवहार करते रहे थे।


जोधपुर नरेश विजयसिंह की पूरी शक्ति अपने ही जागीरदारों को दबा कर रखने में व्यय हुई थी। ई। 1786 में उसने अपने जागीरदारों को मराठों से निबटने में असमर्थ जानकर नागों और दादू पंथियों की एक सेना तैयार की। ये लोग ‘बाण’ चलाने में बड़े दक्ष थे। इनकी मदद से विजयसिंह को काफी बल मिला किन्तु विदेशी सेना को मारवाड़ में देखकर सारे राजपूत सरदार बिगड़ गये और उन्होंने इके होकर विजयसिंह के विरुद्ध लड़ाई की घोषणा कर दी।


विजयसिंह उस समय तो किसी प्रकार सरदारों को मना लाया किन्तु बाद में उसने सरदारों को धोखे से कैद कर लिया। इनमें से दो सरदारों की कैद में मृत्यु हो गई और एक को बालक जानकर छोड़ दिया गया। इस घटना से सारे जागीदारों में सनसनी फैल गई और उन्होंने मारवाड़ में लूट मार मचा दी। बड़ी कठिनाई से विजयसिंह स्थित पर काबू पा सका। आउवा के ठाकुर जैतसिंह ने जब पशुवध निषेध की राजाज्ञा का पालन नहीं किया तो विजयसिंह ने किले में बुलाकर उसकी हत्या कर दी।


कुछ ही दिनों बाद जोधपुर राज्य के जागीरदारों ने षड़यंत्र पूर्वक राजा विजयसिंह की पासवान गुलाबराय की हत्या कर दी। राजा को इस घटना से इतना आघात पहुँचा कि वह पागलों की तरह जोधपुर की गलियों में भटकने लगा और मार्ग में मिलने वाले प्रत्येक आदमी से कहता– कोई तो बताये मेरी गुलाब को किसने मारा? इस पासवान के वियोग में राजा मात्र 46 वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त हुआ।


पोकरण ठाकुर सवाईसिंह ने अपने साथ पाली, बगड़ी, हरसोलाव, खींवसर, मारोठ, सेनणी, पूनलू आदि के जागीरदारों को अपने पक्ष में करके महाराजा मानसिंह के विरुद्ध लड़ाई आंरभ कर दी। जोधपुर नरेश मानसिंह को अपने सरदारों को दबाने के लिये पिण्डारी नेता अमीरखां की सेवाएं लेनी पड़ीं। अमीरखां के साथी मुहम्मद खां ने पोकरण, पाली और बगड़ी के ठाकुरों को मूण्डवा में बुलाया और धोखे से एक शामियाने में बैठाकर शामियाने की रस्सि्यां काट दीं तथा चारों तरफ से तोल के गोले बरसा दिये। उसने मृत ठाकुरों के सिर काटकर राजा मानसिंह को भिजवाये। इस घटना से सारे ठाकुर डर गये और उन्होंने महाराजा से माफी मांग ली।


उदयपुर में 1761 में अरिसिंह मेवाड़ का महाराणा हुआ। महाराणा होने के उपलक्ष्य में वह एकलिंगजी के दर्शनों के लिये गया। वहाँ से लौटते समय जब महाराणा का घोड़ा चीरवा के तंग घाटे तक पहुंचा, उस समय महाराणा के आगे कई सरदार और घुड़सवार चल रहे थे जिससे महाराणा के घोड़े को धीमे हो जाना पड़ा। इस पर महाराणा ने छड़ीदारों को आज्ञा दी कि मार्ग खाली करवाओ। छड़ीदारों ने मार्ग खाली करवाने के लिये सरदारों के घोड़ों को भी छडि़यां मारीं। सरदार लोग उस समय तो उस अपमान को सहन कर गये किंतु उन्होंने महाराणा को हटा कर उसके स्थान पर महाराणा के पिता जगतसिंह की अन्य विधवा, जो कि झाली रानी के नाम से विख्यात थी, उसके गर्भ में पल रहे बालक को महाराणा बनाने का संकल्प किया। सरदारों के इस आचरण से कुपित होकर महाराणा ने कई सरदारों की हत्या करवा दी। मेवाड़ी सरदार फ्रांसिसी सेनापति समरू को मेवाड़ पर चढ़ा लाये। तब से महाराणा और उसके सरदारों में आपसी संघर्ष का जो सिलसिला चला वह रजवाड़ों के मिट जाने के बाद ही समाप्त हो सका।


बीकानेर नरेश जोरावर सिंह की मृत्यु 1746 ई। में हुई। उसके कोई संतान नहीं थी अत: उसके मरते ही राज्य का सारा प्रबंध भूकरका के ठाकुर कुशालसिंह तथा मेहता बख्तावरसिंह ने अपने हाथ में ले लिया। उन दोनों ने राज्य का सारा कोष साफ कर दिया तथा बाद में जोरवारसिंह के चचेरे भाई गजसिंह से यह वचन लेकर कि वह उस समय तक के राज्यकोष का हिसाब नहीं मांगेगा, उसे गद्दी पर बैठा दिया। इससे अन्य सरदार शासक के प्रति द्वेष भाव रखने लगे।


बीकानेर जसवंतसिंह ने तो अपने बड़े पुत्र राजसिंह को राजद्रोह के अपराध में जेल में डाल रखा था। जब 1787 में जसवंतसिंह मरने लगा तो उसने राजसिंह को जेल से निकाल कर बीकानेर राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया। राजसिंह केवल 30 दिन तक राज्य करके मृत्यु को प्राप्त हुआ। राजसिंह का बड़ा पुत्र प्रतापसिंह उस समय नाबालिग था अत: बालक प्रतापसिंह को बीकानेर का राजा बनाया गया तथा सूरतसिंह को राज्य का संरक्षक नियुक्त किया गया। कुछ दिन बाद सूरतसिंह ने अपने हाथों से प्रतापसिंह का गला घोंट कर उसकी हत्या कर दी और स्वयं राजा बन गया। इससे राज्य के सारे सरदार सूरतसिंह के शत्रु हो गये और उसे उखाड़ फैंकने का उपक्रम करने लगे।


जयपुर नगर के निर्माता जयसिंह ने उदयपुर के राणा से प्रतिज्ञा की थी कि मेवाड़ की राजकुमारी से उत्पन्न होने वाला पुत्र जयसिंह के बाद आमेर राज्य का उत्तराधिकारी होगा किंतु जयसिंह की मृत्यु के बाद जयसिंह का सबसे बड़ा पुत्र ईश्वरीसिंह जयपुर राज्य की गद्दी पर बैठा। मेवाड़ की राजकुमारी से उत्पन्न माधोसिंह को टोंक, टोडा तथा तीन अन्य परगनों की जागीर दे दी गयी। इस पर माधोसिंह ने मेवाड़ तथा मराठों का सहयोग प्राप्त कर जयपुर राज्य पर आक्रमण कर दिया। ईश्वरीसिंह को आत्महत्या कर लेनी पड़ी तथा 1750 ईस्वी में माधोसिंह जयपुर की गद्दी पर बैठा।इसी प्रकार की बहुत सी घटनायें बूंदी, कोटा, डूंगरपुर बांसवाड़ा तथा अन्य राजपूत रियासतों में घटित हुईं थीं जिनके चलते राजाओं और जागीरदारों में संघर्ष की स्थिति चली आ रही थी। विद्रोही राजकुमारों तथा जागीरदारों को अपने ही शासकों का सामना करने की क्षमता राजपूताने में उपस्थित दो बाह्य शक्तियों से प्राप्त हुई थी। इनमें से पहली बाह्य शक्ति मराठों की थी तो दूसरी पिण्डारियों की।

3 टिप्‍पणियां:

निर्झर'नीर ने कहा…

आभार आपने इतिहास से रु-बी-रु कराया

Acbairwa.com ने कहा…

Good

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