मंगलवार, 12 जनवरी 2010

पिण्डारियों ने प्रजा तथा राजाओं को जी भर कर लूटा


गवर्नर जनरल लार्ड कार्नवालिस (ई.1805) द्वारा देशी राज्यों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई गयी जिसके कारण न केवल मध्य भारत और राजपूताना की रियासतें पिंडारियों और दूसरे लुटेरों की क्रीड़ा स्थली बनीं बल्कि मराठों की शक्ति घटते जाने से पिंडारी बहुत शक्तिशाली बनते गये और वे अंग्रेजी इलाकों पर भी धावा मारने लगे। स्थान–स्थान पर पिण्डारियों के गिरोह खड़े हो गये। पिण्डारी मराठी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ लुटेरे सैनिक होता है।

पिण्डारियों के दल अचानक गाँव में घुस आते और लूटमार मचाकर भाग जाते। कोई भी गाँव, कोई भी व्यक्ति, कोई भी जागीरदार तथा कोई भी राजा उनसे सुरक्षित नहीं था। अत: प्रत्येक गाँव में ऊँचे मचान बनाये जाते तथा उनपर बैठकर पिण्डारियों की गतिविधियों पर नजर रखी जाती थी। घोड़ों की गर्द देखकर उनके आगमन की सूचना ढोल या नक्कारे बजाकर दी जाती थी। पिण्डारियों के आने की सूचना मिलते ही लोग स्त्रियों, बच्चों, धन, जेवर तथा रुपये आदि लेकर इधर–उधर छुप जाया करते थे।

जागीरी गाँवों में जनता किलों में घुस जाती थी ताकि किसी तरह प्राणों की रक्षा हो सके। पिण्डारी किसी भी गाँव में अधिक समय तक नहीं ठहरते थे। वे आंधी की तरह आते थे और तूफान की तरह निकल जाते थे। पिण्डारियों के कारण मारवाड़, मेवाड़, ढूंढाड़ तथा हाड़ौती जैसे समृद्ध क्षेत्र उजड़ने लगे। भीलवाड़ा जैसे कस्बे तो पूरी तरह वीरान हो गये थे। कोटा राज्य को इन्होंने खूब रौंदा। झाला जालिमसिंह ने पिण्डारियों के विरुद्ध विशेष सैन्य दल गठित किये। इक्का दुक्का आदमियों को मार्ग में पाकर ये पिण्डारी अपने रूमाल से उनका गला घोंट देते और उनका सर्वस्व लूट लेते थे।

इस समय पिण्डारियों के चार प्रमुख नेता थे– करीमखां, वसील मुहम्मद, चीतू और अमीरखां। अमीरखां के नेतृत्व में लगभग 60 हजार पिण्डारी राजपूताना में लूटमार करते थे। अमीरखां का दादा तालेबखां अफगान कालीखां का पुत्र था। तालेबखां मुहम्मदशाह गाजी के काल में बोनेमर से भारत आया था। तालेबखां का लड़का हयातखां था जो मौलवी बन गया था। हयात खां का लड़का अमीरखां 1786 में भारत में ही पैदा हुआ था जो 20 बरस का होने पर रोजी–रोटी की तलाश में घर से निकल गया। उन दिनों सिंधिया का फ्रेंच सेनापति डीबोग्ले सेना की भर्ती कर रहा था। अमीरखां ने भी इस सेना में भर्ती होना चाहा किंतु डीबोग्ले ने उस अनुशासन हीन छोकरे को अपनी सेना में नहीं लिया। इस पर अमीरखां कुछ दिन तक इधर–उधर आवारागर्दी करने के बाद जोधपुर आया और विजयसिंह की सेना में भर्ती हो गया। कुछ समय बाद वह अपने साथ तीन–चार सौ आदमियों को लेकर बड़ौदा चला गया और गायकवाड़ की सेना में भर्ती हो गया।

वहाँ से भी निकाले जाने पर अमीरखां और उसके आदमी भोपाल नवाब की सेवा में चले गये। ई. 1794 में अमीरखां और उसके आदमियों ने भोपाल नवाब मुहम्मद यासीन आलिआस चा खां के मरने के बाद हुए उत्तराधिकार के युद्ध में भाग लिया और वहाँ से भागकर रायोगढ़ में आ गया। यहाँ उसके आदमियों की संख्या 500 तक जा पहुंची। अब उसे कुछ–कुछ महत्व मिलने लगा। कुछ समय बाद उसका राजपूतों से झगड़ा हो गया। राजपूतों ने उसे पत्थरों से मार–मार कर अधमरा कर दया। कई महीनों तक अमीरखां सिरोंज में पड़ा रहकर अपना उपचार करवाता रहा। ठीक होने पर वह भोपाल के मराठा सेनापति बालाराम इंगलिया की सेना में भर्ती हो गया। वहाँ उसे 1500 सैनिकों के ऊपर नियुक्त किया गया। भोपाल नवाब ने अमीरखां के आदमियों को जो वेतन देने का वादा किया था, वह कभी पूरा नहीं हुआ। इस पर 1798 ईस्वी में उसने जसवंतराव होलकर से संधि कर ली जिसमें तय हुआ कि अमीरखां कभी भी जसवंतराव पर आक्रमण नहीं करेगा तथा लूट के माल में दोनों आधा–आधा करेंगे।

1806 में अमीरखां ने अपनी सेना में 35 हजार पिण्डारियों को भर्ती किया। उसके पास 115 तोपें भी हो गयीं। यह संख्या बढ़ती ही चली गयी। अब मराठा सरदार अमीरखां की सेवाएं बड़े कामों में भी प्राप्त करने लगे। जब 1806 में जसवंतराव होलकर की सेना में विद्रोह हुआ तो होलकर ने मुस्लिम सैनिकों को नियंत्रित करने का काम अमीर खां को सौंपा। इस कार्य में सफल होने पर होलकर ने उसे मराठों की ओर से कोटा से चौथ वसूली का काम सौंपा। अमीर खां को होलकर से ही ई. 1809 में निम्बाहेड़ा की तथा ई. 1816 में छबड़ा की जागीर प्राप्त हुईं। 1812 में अमीरखां के पिण्डारियों की संख्या 60 हजार तक पहुँच गयी।
ई. 1807 से 1817 के बीच अमीरखां ने जयपुर, जोधपुर और मेवाड़ राज्यों की आपसी शत्रुता में रुचि दिखायी तथा इन राज्यों का जीना हराम कर दिया। उसके पिण्डारियों ने तीनों ही राज्यों की प्रजा तथा राजाओं को जी भर कर लूटा।

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