बुधवार, 23 दिसंबर 2009

खोखर बड़ो खुराकी, खा गयो अप्पा जैसो डाकी

ये मदमत्त मरहठे अपना स्वरूप भूलकर राजपूताने के क्षत्रियों को दु:ख न देते तो राजपूताने की एकाएकी वर्तमान दशा इतनी खराब न हुई होती।

– भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ई.1882

मुगल सत्ता के कमजोर हो जाने के बाद केंद्रीय स्तर पर राजनीतिक शक्ति की अनुपस्थिति की भरपाई करने के लिये मराठे सामने आये। उनके पाँच शक्तिशाली राज्य बनेे– पूना में पेशवा, नागपुर में भौंसले, इन्दौर में होल्कर, गुजरात में गायकवाड़ तथा ग्वालिअर में सिंधिया। यहाँ से वे लगभग पूरे उत्तरी भारत पर छा गये।
जब मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला ने मराठों को चौथ देना स्वीकार कर लिया तो पेशवा बाजीराव राजपूताने के राज्यों से भी चौथ मांगने लगा क्योंकि राजपूताना के राज्य मुगल सल्तनत के अधीन थे तथा उसे कर देते रहे थे। राजपूताने के राज्यों ने अलग–अलग रह कर स्वयं को मराठों से निबटने मेें असमर्थ पाया। इसलिये ई. 1734 में राजपूताने के शासकों ने हुरड़ा नामक स्थान पर एक सम्मेलन आयोजित किया जिसे हुरड़ा सम्मेलन भी कहते हैं। इस सम्मेलन में मराठों के विरुद्ध राजपूताने के राज्यों का संघ बनाया गया। शासकों द्वारा बातें तो बड़ी–बड़ी की गयीं किंतु इस संघ ने कोई कार्यवाही नहीं की।
ई. 1737 में कोटा में मराठों का प्रतिनिधि नियुक्त हुआ जो कोटा और बूंदी से चौथ वसूलने का काम करता था। उदयपुर एवं जयपुर ने भी पेशवा बाजीराव से संधि कर ली और कर देना स्वीकार कर लिया। जोधपुर नरेश विजयसिंह ने भी मराठों को चौथ देना स्वीकार किया।
मराठों ने मेवाड़ की बुरी गत बनायी। सिंधिया, होल्कर और पेशवा की सेनाओं ने मेवाड़ को जी भर कर लूटा जिससे राजा और प्रजा दोनों निर्धन हो गये। कर्नल टॉड के अनुसार मेवाड़ नरेश जगतसिंह से लेकर मेवाड़ नरेश अरिसिंह के समय तक मराठों ने मेवाड़ से 1 करोड़ 81 लाख रुपये नगद तथा 29.5 लाख रुपये की आय के परगने छीन लिये। यहाँ तक कि मराठों की रानी अहिल्याबाई ने केवल चिट्ठी से धमकाकर मेवाड़ से नींबाहेड़ा का परगना छीन लिया।
जब जयसिंह की मृत्यु के बाद ईश्वरीसिंह जयपुर का राजा हुआ तो जयसिंह की मेवाड़ी रानी से उत्पन्न राजकुमार माधोसिंह ने मेवाड़ तथा मराठों का सहयोग प्राप्त कर जयपुर राज्य पर आक्रमण कर दिया। राजा साहू, गंगाधर टांटिया तथा मल्हार राव होल्कर ने ईश्वरीसिंह को परास्त कर दिया तथा उससे संधि करने के बदले में बहुत बड़ी रकम मांगने लगे। ईश्वरीसिंह इस रकम को देने में असमर्थ था। जब मराठे जयपुर नगर के परकोटे के बाहर दिखायी देने लगे तो उनसे आतंकित होकर ईश्वरीसिंह ने आत्म हत्या कर ली। माधोसिंह जयपुर की गद्दी पर बैठा। होलकर और सिंधिया ने माधोसिंह से भारी रकम की मांग की जिसे पूरा करना माधोसिंह के वश में न था। इस पर 4000 मराठा सैनिक जयपुर में घुसकर उपद्रव करने लगे।
राजा को मराठों के विरुद्ध कार्यवाही करने में असमर्थ जानकर जनता ने विद्रोह कर दिया और 1500 मराठा सैनिकों को घेर कर मार डाला। माधोसिंह को मराठों से क्षमा याचना करनी पड़ी और उन्हें रुपया देकर विदा किया। इससे राज्य की आर्थिक स्थिति शोचनीय हो गयी। राजा की निर्बलता से उत्साहित होकर सामन्त राज्य की खालसा भूमि बलपूर्वक दबाने लगे। राज्य के सामन्तों में गुटबंदी होने लगी जिससे राज्य में घोर अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गयी।
मराठों ने मारवाड़ नरेश रामसिंह और विजयसिंह के बीच हुए झगड़े में हस्तक्षेप किया तथा रामसिंह के समर्थन में मारवाड़ पर आक्रमण कर दिया। उस समय राजा विजयसिंह नागौर के दुर्ग में था इसलिये मराठों के सरदार जयआपा ने ताऊसर में डेरा डाला तथा 31 अक्टूबर 1754 को नागौर का दुर्ग घेर लिया। जयआपा के पुत्र जनकोजी ने जोधपुर का दुर्ग जा घेरा। हरसोलाव का ठाकुर सूरतसिंह चांपावत, शोभायत गोरधन दास खींची तथा सुंदर आदि सरदार उस समय जोधपुर दुर्ग में थे। इसलिये उन्होंने जोधपुर दुर्ग का मोर्चा संभाला।
विजयसिंह ने नागौर दुर्ग में मराठों का सामना किया जाना संभव न जानकर मेवाड़ के महाराणा राजसिंह द्वितीय को मध्यस्थता करने का आग्रह किया। राजसिंह ने सलूम्बर के रावत जैतसिंह को संधि करवाने के लिये नागौर भेजा किंतु जैतसिंह को इस कार्य में सफलता नहीं मिली। मराठों का घेरा बहुत कड़ा था। वे दुर्ग में रसद पहुंचाने का प्रयास करने वालों के नाक कान व हाथ काट लेते थे। कई दिनों दिनों तक यही स्थिति रही। एक दिन खोखर केसर खां तथा एक गहलोत सरदार ने महाराजा से कहा कि इस तरह मरने से तो अच्छा है कि कुछ किया जाये। वे दोनों महाराजा की अनुमति लेकर व्यापारियों के वेश में मराठों की छावनी में दुकान लगाकर बैठ गये। एक दिन दोनों ने आपस में झगड़ना आरंभ कर दिया और लड़ते हुए जयआपा तक जा पहुँचे। जैसे ही वे जयआपा के निकट पहँुचे, उन्होंने जयआपा का काम तमाम कर दिया। इस सम्बन्ध में एक कहावत कही जाती है–
खोखर बड़ो खुराकी, खा गयो अप्पा जैसो डाकी ।
जयआपा के मारे जाने पर मराठों ने क्रुद्ध होकर नागौर दुर्ग पर धावा बोल दिया। विजयसिंह छुपकर दुर्ग से भाग गया। उसने बीकानेर के राजा गजसिंह के यहाँ शरण ली। 14 माह तक मराठे नागौर दुर्ग को घेरकर बैठे रहे। 2 फरवरी 1756 को दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ जिसके अनुसार जोधपुर, नागौर, मेड़ता आदि आधा मारवाड़ विजयसिंह के पास रहा तथा जालोर, मारोठ एवं सोजत रामसिंह के पास रहे।
1790 में एक बार फिर मराठों ने ैंच अधिकारी डी बोईने की अध्यक्षता में एक सेना को मारवाड़ पर आक्रमण करने भेजा। मारवाड़ की सेना ने मेड़ता के बाहर ैंच सेनापति का सामना किया। इस युद्ध में ैंच सेना की जीत हो गयी। इसके बाद बोईने ने जोधपुर के दुर्ग को आ घेरा। इस पर विजयसिंह ने मराठों को चौथ देना स्वीकार कर किया तथा उन्हें अजमेर समर्पित कर दिया।
कोटा के दीवान जालिमसिंह ने मराठों से सहयोग एवं संधि का मार्ग अपनाया। भरतपुर के जाट राजा ने मराठों के सहयोग से अपनी शक्ति बढ़ाई। बीकानेर राज्य मराठों के आक्रमण से अप्रभावित रहा।
राजपूताने के राजा मराठा शक्ति से इतने संत्रस्त थे कि अहमदशाह अब्दाली द्वारा ई. 1761 में पानीपत के मैदान में 1 लाख मराठों का वध कर दिये जाने के उपरांत भी राजपूताने के शासक कोई लाभ नहीं उठा सके और अपने राज्यों से मराठों को बाहर नहीं धकेल सके।
ई. 1818 में कर्नल टॉड मेवाड़ से होकर गुजरा। उसने उस समय के राजपूताने की दशा का वर्णन करते हुए लिखा है– ‘‘जहाजपुर होकर कुंभलमेर जाते समय मुझे एक सौ चालीस मील में दो कस्बों के सिवा और कहीं मनुष्य के पैरों के चिह्न तक नहीं दिखाई दिये। जगह–जगह बबूल के पेड़ खड़े थे और रास्तोंं पर घास उग रही थी। उजड़े गावों में चीते, सूअर आदि वन्य पशुओं ने अपने रहने के स्थान बना रखे थे। उदयपुर में जहाँ पहले पचास हजार घर आबाद थे अब केवल तीन हजार रह गये थे। मेर और भील पहाडि़यों से निकल कर यात्रियों को लूटते थे।’’ई. 1882 में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र मेवाड़ आये। उपने यात्रा प्रसंग में उन्होंने लिखा है– ‘‘ये मदमत्त मरहठे अपना स्वरूप भूलकर राजपूताने के क्षत्रियों को दुख न देते तो राजपूताने की एकाएकी वर्तमान दशा इतनी खराब न होती।’’ इस मराठा शक्ति के विरुद्ध राजपूताना कभी एक नहीं हो सका और अपनी रक्षा के लिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ओर ताकता रहा।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

जहांगीर के सामने मामूली सूबेदारनी दिखती थी इंगलैण्ड की महारानी

मैं आपको (इंगलैण्ड के राजा को) विश्वास दिलाता हूँ कि इन लोगों (भारतीयों) के साथ सबसे अच्छा व्यवहार तभी किया जा सकता है जब एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में संवादवाहक की छड़ी हो। - सर टॉमस रो, ई। 1619


भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का आगमन ई. 1600 में हुआ जब 24 अगस्त को सूरत के मामूली से बंदरगाह पर अंग्रेजों के व्यापारिक जहाज ''हेक्टर'' ने लंगर डाला। जहाज का कप्तान विलियम हॉकिंस नाविक कम लुटेरा अधिक था। वह सूरत से आगरा की ओर चला जहाँ उसकी भेंट बादशाह जहांगीर से हुई। हॉकिंस की दृष्टि में बादशाह जहांगीर इतना धनवान और सामर्थ्यवान था कि उसकी अपेक्षा इंग्लैण्ड की रानी अत्यंत साधारण सूबेदारिन से अधिक नहीं ठहरती थी।
अंग्रेज इस देश में आये तो व्यापारिक उद्देश्यों से थे किंतु उन्होंने अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये एक हाथ में धर्म का झण्डा और दूसरे हाथ में तलवार थाम रखी थी। हॉकिन्स जहांगीर के दरबार में उपस्थित हुआ। जहांगीर ने उसे 400 का मन्सब तथा एक जागीर प्रदान की।
1615 में सर टामस रो ने अजमेर में जहांगीर के समक्ष उपस्थित होकर भारत में व्यापार करने की अनुमति मांगी। जहांगीर ने अंग्रेजों को बम्बई के उत्तर में अपनी कोठियां खड़ी करने और व्यापार चलाने की अनुमति प्रदान की। शीघ्र ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दो जहाज प्रति माह भारत आने लगे। वे जो माल इंग्लैण्ड ले जाते थे वह अत्यधिक ऊंचे दामों पर बिकता था।
इतिहासकारों का मानना है कि लगभग एक सौ पचास वर्षों तक अंग्रेज व्यापारीृ ही बने रहे। यह सही है कि इस काल में उन्होंने 'व्यापार, न कि भूमि' की नीति अपनाई किंतु वे नितांत व्यापारी बने रहे यह बात सही नहीं है। ई. 1619 में सर टॉमस रो ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सलाह दी- ''मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इन लोगों के साथ सबसे अच्छा व्यवहार तभी किया जा सकता है जब एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में संवादवाहक की छड़ी हो।'' पूरे डेढ़ सौ साल तक अंग्रेज शक्ति इस सलाह पर अमल करती रही।
मुगलों के अस्ताचल में जाने एवं पुर्तगाली, डच तथा फ्रैंच शक्तियों को परास्त कर भारत में अपने लिये मैदान साफ करने में अंग्रेजों को अठारहवीं सदी के मध्य तक प्रतीक्षा करनी पड़ी।
23 जून 1757 के प्लासी युध्द के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत में प्रथम बार राजनीतिक सत्ता प्राप्त हुई। इसके बाद अंग्रेजों ने अपनी नीति 'भूमि, न कि व्यापार' कर दी। ई. 1765 के बक्सर युध्द के पश्चात् हुई इलाहाबाद संधि के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी पूर्णत: राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित हुई।
गांधीजी के सहयोगी प्यारेलाल ने लिखा है- ''इतिहास के विभिन्न कालों में ब्रिटिश नीति में कई परिवर्तन हुए किंतु भारत में साम्राज्यिक शासन को बनाये रखने का प्रमुख विचार, उन परिवर्तनों को जोड़ने वाले सूत्र के रूप में सदैव विद्यमान रहा है। यह नीति तीन मुख्य चरणों से निकली है जिन्हें घेराबंदी, अधीनस्थ अलगाव तथा अधीनस्थ संघ कहा जाता है। राज्यों की दृष्टि से इन्हें 'ब्रिटेन की सुरक्षा', 'आरोहण' तथा 'साम्राज्य' कहा जा सकता है।''
प्यारे लाल लिखते हैं- ब्रिटिश नीति के प्रथम चरण (1765-98) में नियामक विचार 'सुरक्षा' तथा 'भारत में इंगलैण्ड की स्थिति' का प्रदर्शन' था। इस काल में कम्पनी अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रही थी। यह चारों ओर से अपने शत्रुओं और प्रतिकूलताओं से घिरी हुई थी। इसलिये स्वाभाविक रूप से कम्पनी ने स्थानीय संभावनाओं में से मित्र एवं सहायक ढूंढे। इन मित्रों के प्रति कम्पनी की नीति चाटुकारिता युक्त, कृपाकांक्षा युक्त एवं परस्पर आदान-प्रदान की थी।
ईस्वी 1756 से 1813 तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने देशी राज्यों के प्रति 'घेरा डालने की नीति' अपनायी। इस अवधि में देशी रियासतों के साथ समानता और स्वतंत्रता के आधार पर समझौते किये गये और इनमें परस्पर कार्य का विचार रखा गया। एल्फिंस्टन के अनुसार भारतीय रियासतों को इसलिये सहन किया गया था क्योंकि वे उन लोगों के लिये शरणस्थल थीं जिनकी युध्द, षड़यंत्र और लूट-मार की आदत उन्हें ब्रिटिश भारत में शांतिपूर्ण नागरिकों के रूप में नहीं रहने देती थी।
क्लाइव (1758-67) ने मुगल सत्ता की अनुकम्पा प्राप्त की। वारेन हेस्टिंग्स (1772-1785) ने अपने काल के अन्य दूसरे ब्रिटिश शासकों की भांति स्थानीय शक्तियों की सहायता से विस्तार की नीति अपनाई।
ई. 1784 के पिट्स इण्डिया एक्ट में घोषणा की गयी थी कि किसी भी नये क्षेत्र को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के क्षेत्र में जबर्दस्ती नहीं मिलाया जायेगा किंतु ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस नीति का अनुसरण कभी नहीं किया।
लार्ड कार्नवालिस (1786-1793) तथा सर जॉन शोर ने देशी राज्यों के प्रति 'अहस्तक्षेप की नीति' अपनायी। इस नीति को अपनाने के पीछे उनका विचार मित्र शक्तियों की अवरोधक दीवार खड़ी करने तथा जहाँ तक संभव हो विजित मित्र शक्तियों की घेरेबंदी में रहने का था। लॉर्ड कार्नवालिस (ई. 1805) तथा बारलो (1805-1807) ने देशी रियासतों की ओर से किये जा रहे संधियों के प्रयत्नों को अस्वीकृत भी किया विशेषत: जयपुर के मामले में। इस समय तक राजपूताने की रियासतें मराठा और पिण्डारियों का शिकार स्थल बनी हुई थीं जो भारत में ब्रिटिश सत्ता के प्रतिद्वंद्वी थे।
शीघ्र ही अनुभव किया जाने लगा कि यदि स्थानीय शक्तियों की स्वयं की घेरेबंदी नहीं की गयी तथा उन्हें अधीनस्थ स्थिति में नहीं लाया गया तो अंग्रेजों की सुरक्षा खतरे में पड़ जायेगी। इससे प्रेरित होकर लॉर्ड कार्नवालिस ने आधा मैसूर राज्य ईस्ट इण्डिया कम्पनी के क्षेत्र में मिला लिया।
लॉर्ड वेलेजली (ई. 1798 से 1805) के काल मेें ब्रिटिश नीति का अगला चरण आरंभ हुआ। इस चरण (1798-1858) में 'सहयोग' के स्थान पर 'प्रभुत्व' ने प्रमुखता ले ली। लार्ड वेलेजली ने 'अधीनस्थ संधियों' के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता को समस्त भारतीय राज्यों पर थोपने का निर्णय लिया ताकि अधीनस्थ राज्य ब्रिटिश सत्ता के विरुध्द किसी तरह का संघ न बना सकें। उसने मेसूर राज्य का अस्तित्व ही मिटा दिया तथा ''सहायता के समझौतों'' से ब्रिटिश प्रभुत्व को और भी दृढ़ता से स्थापित कर दिया। लॉर्ड वेलेजली ने प्रयत्न किया कि राजपूताने के राज्यों को ब्रिटिश प्रभाव एवं मित्रता के क्षेत्र में लाया जाये किंतु उसमें सफलता नहीं मिली। सन् 1803 में लॉर्ड लेक ने जोधपुर राज्य के साथ जो समझौता लागू किया वह कभी लागू न हुआ। कोनार्ड कोरफील्ड ने लिखा है- ई. 1805 तक लगभग संपूर्ण भारत ब्रिटिश नियंत्रण द्वारा आच्छादित कर लिया गया था। जो रियासतें ब्रिटिश साम्राज्य से संलग्न होने से बच गयी थीं, उनके लिये वेलेजली ने अधीनस्थ संधि की पध्दति निर्मित की। इस पध्दति में शासक रियासत के आंतरिक प्रबंध को अपने पास रखता था किंतु बाह्य शांति एवं सुरक्षा के दायित्व को ब्रिटिश शक्ति को समर्पित कर देता था।

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

गोरा हट जा

गोरा हट जा
Told and untold stories of rajput princes
जब तक इंगलैण्ड के मुकुट में भारत रूपी हीरा जड़ा हुआ है तब तक इंगलैण्ड को कोई पछाड़ नहीं सकता। किंतु इसकी कीमत हम तब तक नहीं समझेंगे जब तक कि हम इसे खो न देंगे। – लॉर्ड कर्जन
सिकंदर के भारत में आने से भी बहुत पहले, रोम के शासक ने कहा था भारतीयों के बागों में मोर, उनके खाने की मेज पर कालीमिर्च तथा उनके बदन का रेशम, हमें पागल बना देता है। हम इन चीजों के लिये बर्बाद हुए जा रहे हैं।
एलेक्जेण्ड्रिया के सिकंदर से लेकर, शक, कुषाण, हूण, ईरानी, तूरानी, अफगानी, मुगल, मंगोल, पुर्तगाली, डच तथा french आदि अनेकानेक जातियां भारत में घुसीं। बहुतों के तो अब इतिहास भी मिट गये। किसी को हाथी चाहिये थे तो किसी को चंदन की लकड़ी। किसी को नील की ललक थी तो किसी को कपास की। किसी को सोना चाहिये था तो किसी को गरम मसाले। किसी को दशरथ नंदन राम ने लुभाया था तो किसी को यशोदा नंदन कृष्ण ने।
सब आये और सबने पाया। जो आये वो वापस नहीं गये। या तो यहीं के होकर रह गये या वापसी के प्रयास में मारे गये। सबसे अंत में आने वाले अंग्रेज थे जो मोर, काली मिर्च या रेशम के लिये नहीं अपितु भारत के कण–कण से वह सब कुछ ले जाने के लिये आये थे जो उनके प्यारे इंगलैण्ड को संसार का सबसे धनी देश बना दे। इंगलैण्ड ने भारत से वो सब कुछ लूटा जो उसे कहीं और से नहीं मिला था।
भारत इंगलैण्ड की रानी के मुकुट में जड़ा हुआ सबसे कीमती हीरा था। उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि एक दिन उन्हें भारत से वापस जाना पड़ेगा किंतु इतिहास कभी एक बिंदु पर नहीं ठहरता, वह चलता रहता है। इतिहास ने अंग्रेजों के भारत से वापस जाने की तिथि भी निश्चित कर रखी थी। एक दिन उन्हें भीगी आंखों, दिल में उठती सिसकियों और उफनती भावनाओं को लेकर यहां से वापस जाना ही पड़ा। राजपूतना रियासतों में उनके आने और जाने की कहानी है– गोरा हट जा!
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता
63, सरदार क्लब योजना,
वायुसेना क्षेत्र, जोधपुर