tag:blogger.com,1999:blog-14512629255768926392024-02-21T05:12:09.816+05:30Gora Hat JaDr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.comBlogger14125tag:blogger.com,1999:blog-1451262925576892639.post-4586271879794142562010-03-30T08:10:00.002+05:302010-03-30T08:21:02.267+05:30जाझ फिरंगी सदैव के लिये इतिहास के नेपथ्य में चला गया।<span style="font-size:130%;"><span style="color:#006600;">कुछ दिन बाद जाझ फिरंगी ने अपनी स्थिति को ठीक करके उसने बीकानेर को दण्डित करने का निर्णय लिया क्योंकि बीकानेर के कारण ही वह जीती हुई लड़ाई हार गया था। जॉर्ज ने इस बार दो काम किये। एक तो उसने अपने तोपखाने को मजबूत बनाया तथा दूसरे उसने पानी का प्रबंध किया। उसने बड़ी बड़ी पखालों में पानी भरवाकर अपने साथ रख लिया तथा वर्षा ऋतु प्रारंभ होने पर बीकानेर राज्य की ओर कूच किया।<br />बीकानेर का राजा सूरतसिंह जॉर्ज के तोपखाने का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं था। इसलिये उसने खुले मैदान के स्थान पर नगरों और कस्बों के भीतर जॉर्ज से निबटने की योजना बनायी ताकि जॉर्ज का तोपखाना काम न आ सके। सूरतसिंह ने बीकानेर राज्य की सीमा पर आने वाले प्रत्येक गाँव में अपनी पैदल सेना छिपा दी।<br />जॉर्ज ने सर्वप्रथम जैतपुर गाँव पर चढ़ाई की। इस युद्ध में उसके दो सौ सिपाही मारे गये। जैतपुर के लोगों ने जॉर्ज को रुपये देकर अपने जान व माल की रक्षा की। इसके बाद जॉर्ज गाँव दर गाँव जीतता हुआ बीकानेर की ओर बढ़ने लगा। बीकानेर के अधिकांश सामंत राजा सूरतसिंह से रुष्ट चल रहे थे क्योंकि सूरतसिंह ने बीकानेर के बालक महाराजा प्रतापसिंह की हत्या करके बीकानेर की गद्दी हथियाई थी। इसलिये वे जॉर्ज की सेना के साथ आ खड़े हुए।<br />सूरतसिंह ने अपने सरदारों को शत्रुपक्ष में गया देखकर हथियार डाल दिये। उसने जॉर्ज को दो लाख रुपये देने का वचन दिया। महाराजा ने एक लाख रुपये तो उसी समय चुका दिये तथा शेष एक लाख रुपये की हुण्डियां जयपुर के व्यापारियों के नाम लिख कर दे दी। व्यापारियों ने जॉर्ज को इन हुण्डियों के रुपये नहीं दिये जिससे जॉर्ज फिर से बीकानेर पर चढ़कर आया। इस बार बीकानेर की सहायता के लिये पटियाला की सेना आ पहुँची। इससे जॉर्ज की हालत पतली हो गयी किंतु ठीक उसी समय bhatiyon ने फतहगढ़ पर अधिकार करने के लिये बीकानेर राज्य के विरुद्ध जॉर्ज की सहायता मांगी तथा उसे 40 हजार रुपये प्रदान किये। जॉर्ज ने फतहगढ़ पहुँच कर उस पर <span class="">bhatiyon</span> का अधिकार करवा दिया।<br />इस क्षेत्र के विषम जलवायु की चपेट में आ जाने से जॉर्ज की दो तिहाई सेना नष्ट हो गयी जिसके कारण जॉर्ज इस क्षेत्र को छोड़कर फिर से अपने दुर्ग जॉर्जगढ़ में चला गया। जॉर्ज को दुर्बल हुआ जानकर उसके प्रतिस्पर्धी पैरन तथा कप्तान स्मिथ ने भी जॉर्जगढ़ पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में जॉर्ज की पराजय हो गयी और वह दुर्ग छोड़कर ब्रिटिश सीमा प्रांत की तरफ भागा ताकि वहाँ उसे शरण मिल सके। राजपूताने में कोई भी राजा जॉर्ज के लिये विश्वसनीय नहीं था जो संकट में उसकी सहायता कर सके। अगस्त 1802 में कलकत्ता जाते समय उसकी मृत्यु हो गयी तथा जाझ फिरंगी सदैव के लिये इतिहास के नेपथ्य में चला गया। </span></span>Dr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-1451262925576892639.post-54935433890278945452010-02-16T10:04:00.000+05:302010-02-16T10:05:41.529+05:30जाझ फिरंगी ने राजपूतों से एक–एक कुंआँ छीन लिया<span style="font-size:130%;">जॉर्ज टॉमस जयपुर राज्य की सेना के पीछे भागता हुआ इसी प्रयास में था कि किसी तरह एक कुंआँ हाथ लग जाये। दोनों सेनाओं में काफी अंतर था इसलिये जयपुर की सेना कुंओं को पाटने में सफल हो रही थी और जॉर्ज किसी कुएँ पर अधिकार नहीं कर पा रहा था।</span><br /><br /><span style="font-size:130%;">जॉर्ज टॉमस राजपूताने में जाझ फिरंगी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसका जन्म ई. 1756 में आयरलैण्ड में हुआ था। वह ई. 1782 में एक अंग्रेजी जहाज से मद्रास आया। वह उन अंग्रेजों में से था जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा के लिये नहीं अपितु भारत में अपनी रोजी–रोटी की तलाश में स्वतंत्र रूप से आया करते थे। ये लोग कभी किसी रियासत की नौकरी पा लेते तो कभी किसी सैनिक कमाण्डर के नीचे रहकर छोटी–मोटी लड़ाईयां लड़ते थे। </span><br /><br /><span style="font-size:130%;">जॉर्ज टॉमस पाँच वर्षों तक कनार्टक में पोलिगरों के साथ रहा। फिर कुछ समय तक हैदराबाद निजाम की सेना में रहकर ई. 1787 में दिल्ली चला आया और बेगम समरू की सेवा में रहा। वहीं से उसे प्रसिद्धि मिलनी आरंभ हुई। ई. 1793 से 1797 तक वह मराठा सेनापति खांडेराव की सेवा में रहा। खांडेराव की मृत्यु होने पर जॉर्ज टॉमस को मराठों का साथ छोड़ देना पड़ा क्योंकि वह वामनराव के व्यवहार से संतुष्ट नहीं था। जॉर्ज टॉमस पंजाब की ओर चला आया और वहाँ एक सेना का निर्माण कर उसने अपने लिये एक दुर्ग बनाकर रहने लगा जिसका नाम उसने जॉर्ज गढ़ रखा। दुर्गपति बनने के बाद उसके हौंसले बुलंद हो गये और वह धन प्राप्ति के लिये योजनाएं बनाकर बड़े–बड़े युद्ध करने लगा। जॉर्ज टॉमस की सफलताएं अद्भुत थीं, उसने हिसार, हांसी तथा सिरसा पर भी अधिकार कर लिया।</span><br /><br /><span style="font-size:130%;">ई. 1799 में सिंधिया के सेनापति लकवा दादा ने जयपुर पर आक्रमण किया। लकवादादा के कमाण्डर वामनराव ने जॉर्ज टॉमस को भी इस लड़ाई में आमंत्रित किया। जॉर्ज टॉमस ने वामनराव से कुछ रुपये प्राप्त करने की शर्त पर लड़ाई में भाग लेना स्वीकार किया। जैसे ही जयपुर राज्य की सेना को ज्ञात हुआ कि मराठों की सहायता के लिये जाझ फिरंगी आ गया है तो कच्छवाहे सैनिक मैदान छोड़कर जयपुर की तरफ भाग छूटे।</span><br /><br /><span style="font-size:130%;">मैदान साफ देखकर लकवा दादा ने स्थान–स्थान से चौथ वसूली करते हुए फतहपुर की ओर बढ़ना आरंभ किया। उन दिनों जल की अत्यधिक कमी होने के कारण युद्धरत सेनाओं में से पराजित होने वाली सेना मार्ग में पड़ने वाले कुओं को पाटती हुई भागती थी ताकि शत्रु आसानी से उसका पीछा न कर सके जबकि विजयी सेना का यह प्रयास रहता था कि वह शीघ्र से शीघ्र अपने शत्रु तक पहुँच कर कुंए को पाटे जाने से पहले ही उस पर अधिकार कर ले। </span><br /><br /><span style="font-size:130%;">जॉर्ज टॉमस जयपुर राज्य की सेना के पीछे भागता हुआ इसी प्रयास में था कि किसी तरह एक कुंआँ हाथ लग जाये। दोनों सेनाओं में काफी अंतर था इसलिये जयपुर की सेना कुंओं को पाटने में सफल हो रही थी और जॉर्ज किसी कुएँ पर अधिकार नहीं कर पा रहा था। अंत में बड़ी कठिनाई से वह एक कुएँ पर अधिकार कर सका।</span><br /><br /><span style="font-size:130%;">ठीक उसी समय पीछे भागती हुई जयपुर की सेना को जयपुर से आई नई सेना की सहायता मिल गयी और जयपुर की सेना कांटों की बाड़ आदि लगाकर जॉर्ज तथा लकवा दादा का सामना करने के लिये तैयार हो गयी। दोनों सेनाओं के बीच जमकर युद्ध हुआ जिसमें जयपुर की सेना परास्त हो गयी तथा जयपुर के सेनापति ने संधि की बात चलाई। जयपुर की सेना ने लकवा दादा तथा जॉर्ज टॉमस को बहुत ही कम राशि देने का प्रस्ताव किया जिससे दोनों पक्षों के मध्य संधि नहीं हो सकी। इस समय जॉर्ज की सेना घोड़ों की घास की कमी से परेशान थी फिर उसने लड़ाई आरंभ करने का निर्णय लिया। इसी बीच बीकानेर राज्य की सेना जयपुर राज्य के समर्थन में आ जुटी। इससे युद्ध का पलड़ा बदल गया तथा जॉर्ज ने युद्ध का मैदान छोड़ने का निर्णय लिया। जयपुर की सेना ने दो दिनों तक जॉर्ज की भागती हुई सेना का पीछा किया तथा उसके बहुत से सैनिकों को मार डाला। </span>Dr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1451262925576892639.post-20504927828116624772010-02-08T12:18:00.001+05:302010-02-08T12:25:51.183+05:30मारवाड़ की स्त्रियां दो–दो पैसे में और जयपुर की स्त्रियां एक–एक पैसे में बिकीं<span style="font-size:130%;">इधर जोधपुर को जयुपर तथा बीकानेर की सेनाओं ने घेर रखा था और उधर अमीर खां अपने 60 हजार पिण्डारियों को लेकर जयपुर राज्य में घुसकर लूट मार करने लगा। इस पर विवश होकर जयपुर नरेश को अपनी सेना जोधपुर से हटा लेनी पड़ी।<br /><br />जोधपुर और जयपुर राज्यों के मध्य हुए इस युद्ध में जयपुर की सेनाओं ने जोधपुर को और जोधपुर की की सेनाओं ने जयपुर को खूब लूटा–खसोटा और बर्बाद किया। कहते हैं जयपुर वालों ने मारवाड़ की स्त्रियों को दो–दो पैसे में तथा जोधपुर वालों ने जयपुर की स्त्रियों को एक–एक पैसे में बेचा। यह काल राजपूताने के सर्वनाश का काल था। धर्म, आदर्श और नैतिकता का जो पतन इस काल में राजपूताने के हिन्दुओं में देखने को मिला, वैसा उससे पहले या बाद में कभी नहीं देखा गया।<br /><br />मानसिंह के काल में मारवाड़ में नाथ सम्प्रदाय के जोगड़ों का प्रभाव अत्यन्त बढ़–चढ़ गया क्योंकि नाथों के गुरु आयस देवनाथ ने मानसिंह के दुर्दिनों में भविष्यवाणी की थी कि मानसिंह एक दिन जोधपुर राज्य की गद्दी पर बैठेगा। यह भविष्यवाणी सही निकली थी। इसके बाद मारवाड़ राज्य में नाथों का प्रभाव बहुत बढ़–चढ़ गया। इन नाथों ने जन सामान्य का जीना दुश्वार कर दिया। किसी की बहू–बेटी की इज्जत उन दिनों सुरक्षित नहीं रह गयी थी। जिस स्त्री को चाहते, ये नाथ उठाकर ले जाते। मानसिंह इनसे कुछ नहीं कह पाता था।<br /><br />भारतीय राजाओं में दान, धर्म, क्षमा, दया तथा गौ, शरणागत, स्त्री, साधु एवं ब्राणों की रक्षा की प्रवृत्ति अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही थी इसी कारण मानसिंह ने नाथ साधुओं के अत्याचारों को सहन किया। जोधपुर नरेश मानसिंह का समकालीन मेवाड़ महाराणा भीमसिंह भी इन्हीं गुणों की खान था। उसकी दानवीरता एवं क्षमाशीलता के अनेक किस्से प्रचलित हैं। एक दिन एक सेवक महाराणा के पैर दबा रहा था। उसने महाराणा को मदिरा के प्रभाव में जानकर महाराणा के पैर में से सोने का छल्ला निकालना चाहा किंतु छल्ला कुछ छोटा होने से निकला नहीं। इस पर नौकर ने थूक लगाकर छल्ला निकाल लिया। सेवक ने तो समझा कि महाराणा मदिरा के प्रभाव में बेसुध है किंतु महाराणा सचेत था। जब सेवक छल्ला निकाल चुका तो महाराणा ने सेवक से कहा कि तुझे छल्ला चाहिये था तो मुझसे वैसे ही मांग लेता, थूक लगा कर मुझे अपवित्र क्यों किया? महाराणा ने उठकर स्नान किया और सेवक की निर्धन अवस्था देखकर उसे पर्याप्त धन प्रदान किया। महाराणा भीमसिंह की मृत्यु पर जोधपुर नरेश मानसिंह ने यह पद लिखा–<br /><span class=""></span></span><br /><div align="center"><span style="font-size:130%;"><span style="color:#660000;">राणे भीम न राखियो, दत्त बिन दिहाड़ोह।<br />हय गंद देता हयां, मुओ न मेवाड़ोह।।<br /></span></div><span class=""></span></span><span style="font-size:130%;">अर्थात् मेवाड़ का राणा भीम, जो दान दिये बिना एक भी दिन खाली नहीं जाने देता था और हाथी–घोड़े दान किया करता था, मरा नहीं है। (वह यश रूपी शरीर से जीवित है।)<br /><br />उस काल में जोधपुर नरेश मानसिंह तथा मेवाड़ नरेश भीमसिंह हिन्दू नरेशों के गौरव थे किंतु विधि का विधान ऐसा था कि ये वीर पुंगव भी राजपूताने की रक्षा न कर सके और इन दोनों ही नरेशों को अपनी रक्षा के लिये अंग्रेजों का मुँह ताकना पड़ा।<br /><br />मराठों एवं पिण्डारियों से त्रस्त होकर मारवाड़ ने ई. 1786 तथा 1790 में, जयपुर ने ई. 1787, 1795 तथा 1799 में एवं कोटा ने ई. 1795 में मराठों के विरुद्ध अंगेजों से सहायता मांगी किंतु अंग्रेजों ने इन प्रस्तावों पर कोई ध्यान नहीं दिया क्योंकि उस समय अंगे्रजों की नीति राजपूताने के लिये मराठों से युद्ध करने की नहीं थी।<br />जब राजपूताने की रियासतें मराठों और पिण्डारियों से अपनी रक्षा करने में असफल रहीं तो मराठों और पिण्डारियों ने अंग्रेजों द्वारा विजित क्षेत्रों पर भी धावे मारने आरंभ कर दिये। इससे ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा यह अनुभव किया गया कि जब तक देशी राज्यों को अपने अधीन नहीं किया जायेगा तब तक अंग्रेजी सुरक्षा पंक्ति अंग्रेजी क्षेत्रों की रक्षा नहीं कर सकती। यही कारण है कि अंग्रेज, देशी राज्यों से संधियां करने को लालायित हुए।</span>Dr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1451262925576892639.post-35365416623088243802010-01-27T15:19:00.001+05:302010-01-27T15:21:10.981+05:30पिण्डारियों ने राजकुमारी कृष्णाकुमारी को जहर पीने पर विवश कर दिया<span style="font-size:130%;"></span><br /><span style="font-size:130%;">उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में मराठों और पिण्डारियों के निरंतर आक्रमणों ने राजपूताना की राजनैतिक शक्ति को तोड़कर रख दिया था जिससे त्रस्त होकर राजपूताने की रियासतों ने सिंधियों तथा पठानों को अपनी सेनाओं में जगह दी। ये नितांत अनुशासनहीन सिपाही थे जो किसी विधि–विधान को नहीं मानते थे। इस काल में अंग्रेजों, फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों तथा डच सेनाओं के खूनी पंजे भी भारत पर अपना कब्जा जमाने के लिये जोर आजमाइश कर रहे थे।<br /><br />इन सब खतरों से बेपरवाह राजपूताना के बड़े रजवाड़ों के मध्य छोटी –छोटी बातों को लेकर मन–मुटाव और संघर्ष चल रहा था। इस काल में राजपूताना की चारों बड़ी रियासतें– जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर तथा जयपुर परस्पर खून की होली खेल रही थीं।<br /><br />ई. 1803 में मानसिंह जोधपुर राज्य की गद्दी पर बैठा। उसके पूर्ववर्ती जोधपुर नरेश भीमसिंह की सगाई उदयपुर की राजकुमारी कृष्णाकुमारी के साथ हुई थी किंतु विवाह होने से पहले ही जोधपुर नरेश भीमसिंह की मृत्यु हो गयी। इस पर मेवाड़ नरेश भीमसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह जयपुर के राजा जगतसिंह के साथ करना निश्चित कर दिया। जोधपुर नरेश मानसिंह ने इस सगाई का विरोध करते हुए महाराणा को लिखा कि राजकुमारी कृष्णाकुमारी का विवाह तो जोधपुर नरेश से होना निश्चित हुआ था। इसलिये राजकुमारी का विवाह मेरे साथ किया जाये। मानसिंह की इस बात से जयपुर नरेश बिगड़ गया और उसने जोधपुर के ठाकुर सवाईसिंह के साथ मिलकर जोधपुर राज्य पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में बीकानेर नरेश सूरतसिंह भी जयपुर की तरफ से जोधपुर राज्य पर चढ़ आया।<br /><br />दुर्ग को चारों तरफ प्रबल शत्रुओं से घिरा हुआ जानकर जोधपुर नरेश मानसिंह ने पिण्डारी नेता अमीरखां की सेवाओं को प्राप्त किया। अमीरखां उदयपुर गया तथा उसने महाराणा को उकसाया कि वह राजकुमारी को अपने हाथों से जहर दे दे अन्यथा उसे जोधपुर राज्य तथा पिण्डारियों की सम्मिलित सेना से निबटना पड़ेगा। महाराणा भीमसिंह के शक्तावत सरदार अजीतसिंह ने भी अमीरखां का समर्थन किया। जब राजकुमारी कृष्णाकुमारी ने देखा कि उसके कारण लाखों हिन्दू वीरों के प्राण संकट में आने वाले हैं तो उसने जहर पी लिया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि महाराणा ने अपने हाथों से राजकुमारी कृष्णाकुमारी को जहर पिला दिया।<br /><br />जब चूण्डावत अजीतसिंह को इस बात का पता लगा तो उसने भरे दरबार में महाराणा भीमसिंह तथा शक्तावत अजीतसिंह की लानत–मलानत की तथा शक्तावत अजीतसिंह और उसकी पत्नी को श्राप दिया कि वे भी संतान की मृत्यु का कष्ट देखें। कहते हैं कि चूण्डावत सरदार के श्राप से कुछ दिनों बाद ही शक्तावत अजीतसिंह के पुत्र और पत्नी की मृत्यु हो गयी। शक्तावत अजीतसिंह जीवन से विरक्त होकर मंदिरों में भटकने लगा।</span>Dr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1451262925576892639.post-80289250809568709392010-01-14T13:04:00.001+05:302010-01-14T13:06:37.803+05:30पिण्डारियों ने पोकरण ठाकुर का सिर काटकर राजा को भिजवाया<span style="font-size:130%;"></span><br /><p><br /><span style="font-size:130%;">ई. 1803 में राजा मानसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा। उस समय उसके पूर्ववर्ती राजा भीमसिंह की विधवा रानी गर्भवती थी जिसने कुछ दिन बाद धोकलसिंह नामक पुत्र को जन्म दिया। पोकरण के ठाकुर सवाईसिंह ने पाली, बगड़ी, हरसोलाव, खींवसर, मारोठ, सेनणी, पूनलू आदि के जागीरदारों को अपने पक्ष में करके धोकलसिंह को मारवाड़ का राजा बनाना चाहा। उसने जयपुर के राजा जगतसिंह तथा बीकानेर के राजा सूरतसिंह को भी अपनी ओर मिला लिया। इन तीनों पक्षों ने लगभग एक लाख सिपाहियों की सेना लेकर जोधपुर राज्य पर चढ़ाई कर दी। मानसिंह ने गीगोली के पास इस सेना का सामना किया किंतु जोधपुर राज्य के सरदार जबर्दस्ती मानसिंह का घोड़ा युद्ध के मैदान से बाहर ले आये। शत्रु सेना ने परबतसर, मारोठ, मेड़ता, पीपाड़ आदि कस्बों को लूटते हुए जोधपुर का दुर्ग घेर लिया।</span></p><p><br /><span style="font-size:130%;">इस पर मानसिंह को पिण्डारी नेता अमीरखां की सेवाएं लेनी पड़ीं। उसने अमीरखां को पगड़ी बदल भाई बनाया और उसे अपने बराबर बैठने का अधिकार दिया। इतना ही नहीं मानसिंह ने अमीर खां को पाटवा, डांगावास, दरीबा तथा नावां आदि गाँव भी प्रदान किये। अमीरखां ने महाराजा को वचन दिया कि वह सवाईसिंह को अवश्य दण्डित करेगा।</span></p><span style="font-size:130%;"><p><br />अमीरखां ने एक भयानक जाल रचा। उसने महाराजा मानसिंह से पैसों के लिये झगड़ा करने का नाटक किया तथा जोधपुर राज्य के गाँवों को लूटने लगा। जब सवाईसिंह ने सुना कि अमीर खां जोधपुर राज्य के गाँवों को लूट रहा है तो उसने अमीरखां को अपने पक्ष में आने का निमंत्रण दिया। अमीर खां ने सवाईसिंह से कहा कि यदि सवाईसिंह अमीरखां के सैनिकों का वेतन चुका दे तो अमीरखां सवाईसिंह को जोधपुर के किले पर अधिकार करवा देगा। सवाईसिंह अमीरखां के आदमियों का वेतन चुकाने के लिये तैयार हो गया। इस पर अमीरखां ने सवाईसिंह को अपने साथियों सहित मूण्डवा आने का निमंत्रण दिया। </p><p><span class=""></span> </p><p>सवाईसिंह चण्डावल, पोकरण, पाली और बगड़ी के ठाकुरों को साथ लेकर मूण्डवा पहुँचा। अमीरखां के आदमियों ने इन ठाकुरों को एक शामियाने में बैठाया तथा धोखे से शामियाने की रस्सि्यां काटकर चारों तरफ से तोल के गोले बरसाने लगे। इसके बाद मृत ठाकुरों के सिर काटकर राजा मानसिंह को भिजवाये गये। इस घटना से सारे ठाकुर डर गये और उन्होंने महाराजा से माफी मांग ली।कुछ दिनों बाद अमीरखां महाराजा से पैसों की मांग करने लगा। जब महाराजा ने पैसे देने से मना कर दिया तो उसने गाँवों में आतंक मचा दिया। एक दिन उसके आदमियों ने जोधपुर के महलों में घुसकर राजा मानसिंह के प्रधानमंत्री इन्द्रराज सिंघवी तथा राजा के गुरु आयस देवनाथ की हत्या कर दी।</span></p>Dr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1451262925576892639.post-90444559300134738032010-01-12T12:06:00.001+05:302010-01-12T12:09:38.349+05:30पिण्डारियों ने प्रजा तथा राजाओं को जी भर कर लूटा<span class=""></span><br /><span style="font-size:130%;">गवर्नर जनरल लार्ड कार्नवालिस (ई.1805) द्वारा देशी राज्यों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई गयी जिसके कारण न केवल मध्य भारत और राजपूताना की रियासतें पिंडारियों और दूसरे लुटेरों की क्रीड़ा स्थली बनीं बल्कि मराठों की शक्ति घटते जाने से पिंडारी बहुत शक्तिशाली बनते गये और वे अंग्रेजी इलाकों पर भी धावा मारने लगे। स्थान–स्थान पर पिण्डारियों के गिरोह खड़े हो गये। पिण्डारी मराठी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ लुटेरे सैनिक होता है।<br /><br />पिण्डारियों के दल अचानक गाँव में घुस आते और लूटमार मचाकर भाग जाते। कोई भी गाँव, कोई भी व्यक्ति, कोई भी जागीरदार तथा कोई भी राजा उनसे सुरक्षित नहीं था। अत: प्रत्येक गाँव में ऊँचे मचान बनाये जाते तथा उनपर बैठकर पिण्डारियों की गतिविधियों पर नजर रखी जाती थी। घोड़ों की गर्द देखकर उनके आगमन की सूचना ढोल या नक्कारे बजाकर दी जाती थी। पिण्डारियों के आने की सूचना मिलते ही लोग स्त्रियों, बच्चों, धन, जेवर तथा रुपये आदि लेकर इधर–उधर छुप जाया करते थे।<br /><br />जागीरी गाँवों में जनता किलों में घुस जाती थी ताकि किसी तरह प्राणों की रक्षा हो सके। पिण्डारी किसी भी गाँव में अधिक समय तक नहीं ठहरते थे। वे आंधी की तरह आते थे और तूफान की तरह निकल जाते थे। पिण्डारियों के कारण मारवाड़, मेवाड़, ढूंढाड़ तथा हाड़ौती जैसे समृद्ध क्षेत्र उजड़ने लगे। भीलवाड़ा जैसे कस्बे तो पूरी तरह वीरान हो गये थे। कोटा राज्य को इन्होंने खूब रौंदा। झाला जालिमसिंह ने पिण्डारियों के विरुद्ध विशेष सैन्य दल गठित किये। इक्का दुक्का आदमियों को मार्ग में पाकर ये पिण्डारी अपने रूमाल से उनका गला घोंट देते और उनका सर्वस्व लूट लेते थे।<br /><br />इस समय पिण्डारियों के चार प्रमुख नेता थे– करीमखां, वसील मुहम्मद, चीतू और अमीरखां। अमीरखां के नेतृत्व में लगभग 60 हजार पिण्डारी राजपूताना में लूटमार करते थे। अमीरखां का दादा तालेबखां अफगान कालीखां का पुत्र था। तालेबखां मुहम्मदशाह गाजी के काल में बोनेमर से भारत आया था। तालेबखां का लड़का हयातखां था जो मौलवी बन गया था। हयात खां का लड़का अमीरखां 1786 में भारत में ही पैदा हुआ था जो 20 बरस का होने पर रोजी–रोटी की तलाश में घर से निकल गया। उन दिनों सिंधिया का फ्रेंच सेनापति डीबोग्ले सेना की भर्ती कर रहा था। अमीरखां ने भी इस सेना में भर्ती होना चाहा किंतु डीबोग्ले ने उस अनुशासन हीन छोकरे को अपनी सेना में नहीं लिया। इस पर अमीरखां कुछ दिन तक इधर–उधर आवारागर्दी करने के बाद जोधपुर आया और विजयसिंह की सेना में भर्ती हो गया। कुछ समय बाद वह अपने साथ तीन–चार सौ आदमियों को लेकर बड़ौदा चला गया और गायकवाड़ की सेना में भर्ती हो गया।<br /><br />वहाँ से भी निकाले जाने पर अमीरखां और उसके आदमी भोपाल नवाब की सेवा में चले गये। ई. 1794 में अमीरखां और उसके आदमियों ने भोपाल नवाब मुहम्मद यासीन आलिआस चा खां के मरने के बाद हुए उत्तराधिकार के युद्ध में भाग लिया और वहाँ से भागकर रायोगढ़ में आ गया। यहाँ उसके आदमियों की संख्या 500 तक जा पहुंची। अब उसे कुछ–कुछ महत्व मिलने लगा। कुछ समय बाद उसका राजपूतों से झगड़ा हो गया। राजपूतों ने उसे पत्थरों से मार–मार कर अधमरा कर दया। कई महीनों तक अमीरखां सिरोंज में पड़ा रहकर अपना उपचार करवाता रहा। ठीक होने पर वह भोपाल के मराठा सेनापति बालाराम इंगलिया की सेना में भर्ती हो गया। वहाँ उसे 1500 सैनिकों के ऊपर नियुक्त किया गया। भोपाल नवाब ने अमीरखां के आदमियों को जो वेतन देने का वादा किया था, वह कभी पूरा नहीं हुआ। इस पर 1798 ईस्वी में उसने जसवंतराव होलकर से संधि कर ली जिसमें तय हुआ कि अमीरखां कभी भी जसवंतराव पर आक्रमण नहीं करेगा तथा लूट के माल में दोनों आधा–आधा करेंगे।<br /><br />1806 में अमीरखां ने अपनी सेना में 35 हजार पिण्डारियों को भर्ती किया। उसके पास 115 तोपें भी हो गयीं। यह संख्या बढ़ती ही चली गयी। अब मराठा सरदार अमीरखां की सेवाएं बड़े कामों में भी प्राप्त करने लगे। जब 1806 में जसवंतराव होलकर की सेना में विद्रोह हुआ तो होलकर ने मुस्लिम सैनिकों को नियंत्रित करने का काम अमीर खां को सौंपा। इस कार्य में सफल होने पर होलकर ने उसे मराठों की ओर से कोटा से चौथ वसूली का काम सौंपा। अमीर खां को होलकर से ही ई. 1809 में निम्बाहेड़ा की तथा ई. 1816 में छबड़ा की जागीर प्राप्त हुईं। 1812 में अमीरखां के पिण्डारियों की संख्या 60 हजार तक पहुँच गयी।<br />ई. 1807 से 1817 के बीच अमीरखां ने जयपुर, जोधपुर और मेवाड़ राज्यों की आपसी शत्रुता में रुचि दिखायी तथा इन राज्यों का जीना हराम कर दिया। उसके पिण्डारियों ने तीनों ही राज्यों की प्रजा तथा राजाओं को जी भर कर लूटा।</span>Dr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1451262925576892639.post-81859328472273936522010-01-07T17:20:00.000+05:302010-01-07T17:22:48.665+05:30महारावल ने घबराकर अंग्रेज बहादुर से दोस्ती गांठने का मन बनाया<span style="font-size:130%;">जैसलमेर को अंतर्कलह में फंसा हुआ जानकर ई. 1783 में बीकानेर के राजा ने पूगल पर अधिकार कर लिया और उसे अपने राज्य में मिला लिया। उन दिनों जोधपुर राज्य में भी शासनाधिकार को लेकर कलह मचा हुआ था। राजा विजयसिंह अपने पौत्र मानसिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था किंतु विजयसिंह का दूसरा पौत्र पोकरण ठाकुर सवाईसिंह के साथ मिलकर राज्य हड़पने का षड़यंत्र कर रहा था। भीमसिंह को जोधपुर राज्य छोड़कर जैसलमेर में शरण लेनी पड़ी। इस दौरान जैसलमेर के महारावल मूलराज तथा जोधपुर के राजकुमार भीमसिंह के मध्य एक संधि हुई तथा महारावल ने युवराज रायसिंह की पुत्री का विवाह भीमसिंह के साथ कर दिया।<br /><br />कुछ समय बाद परिस्थितियों ने पलटा खाया तथा विजयसिंह की मृत्यु होने पर भीमसिंह जोधपुर का राजा बना। मानसिंह को जोधपुर से भागकर जालोर के किले में शरण लेनी पड़ी। जब भीमसिंह जोधपुर का राजा बना तो जैसलमेर के युवराज रायसिंह को जोधपुर में रहना कठिन हो गया। वह अपने पिता से क्षमा याचना करने के लिये जैसलमेर राज्य में लौट आया। जोरावरसिंह तथा उसके अन्य साथी भी जैलसमेर आ चुके थे।<br /><br />महारावल ने युवराज के समस्त साथियों तथा जोरावरसिंह को तो क्षमा कर दिया किंतु अपने पुत्र को क्षमा नहीं कर सका और उसे देवा के दुर्ग में नजरबंद कर दिया। रायसिंह के दो पुत्र अभयसिंह और धोकलसिंह बाड़मेर में थे। महारावल ने उन्हें कई बार बुलाया किंतु सामंतों ने डर के कारण राजकुमारों को समर्पित नहीं किया। महारावल ने रुष्ट होकर बाड़मेर को घेर लिया। 6 माह की घेरेबंदी के बाद सामंतों ने इस शर्त पर दोनों राजकुमारों को महारावल को सौंप दिया कि राजकुमारों के प्राण नहीं लये जायेंगे। महारावल ने जोरावरसिंह से दोनों राजकुमारों के प्राणों की सुरक्षा की गारण्टी दिलवायी।<br /><br />दीवान सालिमसिंह के दबाव पर महारावल मूलराज ने युवराज रायसिंह के दोनों पुत्रों को रायसिंह के साथ ही देवा के दुर्ग में नजरबंद कर दिया। सालिमसिंह अपने पिता की हत्या करने वालों से बदला लेना चाहता था किंतु जोरावरसिंह उन सब सामंतों को महारावल से माफी दिलवाकर फिर से राज्य में लौटा लाया था। इसलिये सालिमसिंह ने जोरावरसिंह को जहर देकर उसकी हत्या करवा दी। कुछ ही दिनों बाद मेहता सालिमसिंह ने जोरावरसिंह के छोटे भाई खेतसी की भी हत्या करवा दी। सालिमसिंह का प्रतिशोध यहाँ पर आकर भी समाप्त नहीं हुआ। उसने कुछ दिन बाद देवा के दुर्ग में आग लगवा दी जिसमें युवराज रायसिंह तथा उसकी रानी जलकर मर गये। रायसिंह के दोनों पुत्र अभयसिंह तथा धोकलसिंह इस आग में जीवित बच गये थे। उन्हें रामगढ़ में लाकर बंद किया गया। कुछ समय बाद वहीं परा उन दोनों की हत्या कर दी गयी।<br /> इस प्रकार जब राजपूताना मराठों और पिण्डारियों से त्रस्त था और अंग्रेज बंगाल की ओर से चलकर राजपूताने की ओर बढ़े चले आ रहे थे, जैसलमेर का राज्य अपनी ही कलह से नष्ट हुआ जा रहा था। बीकानेर का राजा जैसलमेर राज्य के पूगल क्षेत्र को हड़प गया था तो जोधपुर राज्य ने उसके शिव, कोटड़ा तथा दीनगढ़ को डकार लिया था। महारावल ने दीवान सालिमसिंह तथा अपने पड़ौसी राज्यों के अत्याचारों से घबरा कर अंग्रेज बहादुर से दोस्ती गांठने का मन बनाया।</span>Dr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1451262925576892639.post-21285276730441961052010-01-06T11:08:00.000+05:302010-01-06T11:11:04.091+05:30मेहता सालिमसिंह ने जैसलमेर के तीन राजकुमारों को मार डाला<span style="font-size:130%;"></span><br /><p><span style="font-size:130%;">जिस समय जोधपुर, जयपुर, मेवाड़ और बीकानेर आपस में संघर्षरत थे तथा मराठों और पिण्डारियों का शिकार बन रहे थे उस समय जैसलमेर का भाटी राज्य भयानक आंतरिक कलह में उलझा हुआ था। मरूस्थलीय एवं अनुपजाऊ क्षेत्र में स्थित होने के कारण मराठों और पिण्डारियों को इस राज्य में कोई रुचि नहीं थी। इस काल में एक ओर तो राज्य के दीवान और सामंतों के मध्य शक्ति परीक्षण चल रहा था दूसरी ओर जैसलमेर के शासक मूलराज द्वितीय का अपने ही पुत्र रायसिंह से वैर बंध गया था। </span></p><span style="font-size:130%;"><p><br />महारावल मूलराज ने मेहता टावरी (माहेश्वरी) स्वरूपसिंह को अपना दीवान नियुक्त किया। वह कुशाग्र बुद्धि वाला चतुर आदमी था। महारावल ने राज्य का सारा काम उसके भरोसे छोड़ दिया। जैसलमेर राज्य के सामंत लूटपाट करने के इतने आदी थे कि वे अपने ही राज्य के दूसरे सामंत के क्षेत्र में लूटपाट करने में नहीं हिचकिचाते थे। जब मेहता स्वरूपसिंह ने सामंतों को ऐसा करने से रोकने का प्रयास किया तो सामंत उसकी जान के दुश्मन बन गये। जब सामंतों ने स्वरूपसिंह के विरुद्ध शिकायत की तो महारावल ने स्वरूपसिंह के विरुद्ध कोई भी शिकायत सुनने से मना कर दिया। इस पर सामंतों ने महारावल के पुत्र राजकुमार रायसिंह को स्वरूपसिंह के विरुद्ध षड़यंत्र में शामिल कर लिया।</p><p><br />दीवान स्वरूपसिंह एक वेश्या पर आसक्त था परंतु वह वेश्या सामंत सरदारसिंह पर आसक्त थी। इससे स्वरूपसिंह खिन्न रहता था। अपनी खीझ निकालने के लिये उसने सरदारसिंह को बहुत तंग किया। सरदारसिंह ने युवराज रायसिंह से स्वरूपसिंह की शिकायत की। रायसिंह पहले से ही स्वरूपसिंह से रुष्ट था क्योंकि स्वरूपसिंह ने युवराज का दैनिक भत्ता कम कर दिया था।</p><p><br />युवराज को दीवान से रुष्ट जानकर, दीवान से असंतुष्ट सामंत, रायसिंह की शरण में आ गये तथा स्वरूपसिंह को पद से हटाने का षड़यंत्र करने लगे। 10 जनवरी 1784 को युवराज रायसिंह ने भरे दरबार में दीवान स्वरूपसिंह का सिर काट डाला। अपने पुत्र का यह दु:साहस देखकर महारावल रायसिंह दरबार छोड़कर भाग खड़ा हुआ और रनिवास में जाकर छुप गया। महारावल को इस प्रकार भयभीत देखकर सामंतों ने रायसिंह को सलाह दी कि वह महारावल की भी हत्या कर दे और स्वयं जैसलमेर के सिंहासन पर बैठ जाये। </p><p><br />युवराज ने पिता की हत्या करना उचित नहीं समझा किंतु सामंतों के दबाव में उसने महारावल को अंत:पुर में ही बंदी बनाकर राज्यकार्य अपने हाथ में ले लिया। अपने पिता के प्रति आदर भाव होने के कारण युवराज स्वयं राजगद्दी पर नहीं बैठा। लगभग तीन माह तक महारावल रनिवास में बंदी की तरह रहा। एक दिन अवसर पाकर महारावल के विश्वस्त सामंतों ने अंत:पुर पर आक्रमण कर दिया तथा महारावल मूलराज को मुक्त करवा लिया। महारावल को उसी समय फिर से राजगद्दी पर बैठाया गया। उस समय युवराज रायसिंह अपने महल में विश्राम कर रहा था। जब महारावल का दूत युवराज के राज्य से निष्कासन का पत्र लेकर युवराज के पास पहुँचा तो युवराज को स्थिति के पलट जाने का ज्ञान हुआ। </p><p><br />महारावल ने क्षत्रिय परम्परा के अनुसार राज्य से निष्कासित किये जाने वाले युवराज के लिये काले कपड़े, काली पगड़ी, काली म्यान, काली ढाल तथा काला घोड़ा भी भिजवाया। युवराज ने अपने पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया तथा काला वेश धारण कर अपने साथियों सहित चुपचाप राज्य से निकल गया। उसने जोधपुर के राजा विजयसिंह के यहाँ शरण प्राप्त की। </p><p><br />महारावल मूलराज ने फिर से राजगद्दी पर बैठकर पूर्व दीवान स्वरूपसिंह के 11 वर्षीय पुत्र सालिमसिंह को राज्य का दीवान बनाया। मेहता सालिमसिंह ने कुछ समय तक बड़ी शांति से राज्य कार्य का संचालन किया। जैसलमेर के इतिहास में मेहता सालिमसिंह का बड़ा नाम है। जैसे ही सालिमसिंह वयस्क हुआ, उसके और सामंत जोरावरसिंह के बीच शक्ति परीक्षण होने लगा। जोरावरसिंह ने ही महारावल को अंत:पुर से मुक्त करवाकर फिर से राजगद्दी पर बैठाया था किंतु सालिमसिंह ने महारावल से कहकर जोरावरसिंह को राज्य से निष्कासित करवा दिया। जोरावरसिंह युवराज रायसिंह के पास चला गया। </span></p>Dr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1451262925576892639.post-20597580463025730862010-01-05T10:37:00.002+05:302010-01-05T10:41:51.807+05:30जाट महाराजा ने अंग्रेजों को भरतपुर से बाहर निकाल दिया<span style="font-size:130%;">अहमदशाह अब्दाली ने 1757 से 1761 के बीच महाराजा सूरजमल से कई बार रुपयों की मांग की। अपने राज्य की रक्षा के लिये महाराजा ने अब्दाली को कभी दो करोड़़, कभी 65 लाख, कभी 6 लाख तथा अन्य बड़ी–बड़ी राशि देने के वचन दिये किंतु उसे कभी फूटी कौड़ी नहीं दी। 1761 में अब्दाली अड़ गया कि इस बार तो वह कुछ लेकर ही मानेगा। महाराजा ने कहा कि उसे 6 लाख रुपये दिये जायेंगे किंतु अभी हमारे पास केवल 1 लाख रुपये ही हैं। अब्दाली केवल एक लाख रुपये ही लेकर चलता बना। उसके बाद महाराजा ने उसे कभी कुछ नहीं दिया।</span><br /><br /><span style="font-size:130%;">एक दिन अफगान सैनिकों को महाराजा सूरजमल के आगमन की सूचना मिली। वे हिण्डन नदी के कटाव में छिप कर बैठ गये। जब महाराजा वहाँ से होकर निकला तो अफगानियों ने अचानक हमला बोल दिया। सैयद मोहम्मद खां बलूच ने महाराजा के पेट में अपना खंजर दो–तीन बार मारा और एक सैनिक ने महाराजा की दांयी भुजा काट दी। भुजा के गिरते ही महाराजा धराशायी हो गया। उसी समय उसके शरीर के टुकड़े टुकड़े कर दिये गये। एक मुस्लिम सैनिक महाराजा की कटी हुई भुजा को अपने भाले की नोक में पताका की भांति उठाकर नजीबुद्दौला के पास ले गया। इस प्रकार 25 दिसम्बर 1763 को हिन्दूकुल गौरव महाराजा सूरजमल का दर्दनाक अंत हो गया। </span><br /><br /><span style="font-size:130%;">महाराजा की मृत्यु के बाद मराठों ने आमलगीर द्वितीय के साथ मिलकर भरतपुर राज्य समाप्त करने की योजना बनायी। 1784 में शाह आलम द्वितीय की ओर से सिंधिया ने भरतपुर राज्य पर आक्रमण करके राज्य का बहुत बड़ा क्षेत्र दबा लिया। इस पर राजमाता किशोरी देवी ने मराठों से गुहार की कि वे जाट राज्य समाप्त न करें। इस पर सिंधिया ने भरतपुर का सारा क्षेत्र जाटों को लौटा दिया। जाट मराठों को चौथ के रूप में दो लाख रुपया प्रतिवर्ष देने लगे।</span><br /><br /><span style="font-size:130%;">ई. 1803 में अंगे्रजों ने भरतपुर राज्य के पास प्रस्ताव भिजवाया कि यदि जाट अंग्रेजों से संधि कर लें तो अंग्रेज मराठों के हाथों से जाटों के राज्य की रक्षा करेंगे। इसके बदले में वे जाटों से कोई राशि भी नहीं लेंगे। इस प्रकार ई। 1803 में जनरल लेक और भरतपुर के राजा रणजीतसिंह के बीच संधि हो गयी। अंगे्रजों ने मराठों से छीने हुए जाट क्षेत्र रणजीतसिंह को लौटा दिये। यह संधि अधिक दिनों तक नहीं टिक सकी। अंग्रेज सिपाही जाटों के राज्य में गाय मार कर खाने लगे। इस पर रणजीतसिंह ने अंगे्रजों को भरतपुर राज्य से बाहर जाने के लिये कह दिया।</span><br /><span style="font-size:130%;"></span><br /><span style="font-size:130%;"></span>Dr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-1451262925576892639.post-31244681277226937692010-01-04T12:18:00.000+05:302010-01-04T12:31:35.837+05:30भरतपुर की महारानी ने कहा, मराठा सैनिक मेरे बच्चे हैं<strong>एक तरफ तो बंगाल से अंगे्रज शक्ति उत्तरी भारत को दबाती हुई चली आ रही थी तथा दूसरी ओर पिण्डारी और मराठे उत्तरी भारत को रौंदने में लगे हुए थे। यह भारतीय इतिहास के मध्यकाल का अवसान काल था किंतु अफगानिस्तान की ओर से विगत कई शताब्दियों से आ रही इस्लामिक आक्रमणों की आंधी अभी थमी नहीं थी। ई.1757 में अफगान सरदार अदमदशाह दुर्रानी ने भारत पर चौथा आक्रमण किया। वह इतिहास में अहमदशाह अब्दाली के नाम से जाना जाता है। उसने सुन रखा था कि भारत में दो ही धनाढ्य व्यक्ति हैं– एक तो नवाब शुजाउद्दौला तथा दूसरा भरतपुर का राजा सूरजमल। अत: वह भरतपुर के खजाने को लूटने के लिये बड़ा व्याकुल था।<br />अहमदशाह अब्दाली ने बल्लभगढ़, कुम्हेर, डीग, भरतपुर तथा मथुरा पर आक्रमण कर दिया। उसने अपने सैनिकों को आज्ञा दी कि मथुरा में एक भी आदमी जीवित न रहे तथा जो मुसलमान किसी विधर्मी का सिर काटकर लाये, उसे पाँच रुपया प्रति सिर के हिसाब से ईनाम दिया जाये। अहमदशाह की घुड़सवार सेना ने अर्ध रात्रि में बल्लभगढ़ पर आक्रमण किया गया। प्रात:काल होने पर लोगों ने देखा कि प्रत्येक घुड़सवार एक घोड़े पर चढ़ा हुआ था। उसने उस घोड़े की पूंछ के साथ दस से बीस घोड़ों की पूंछों को बांध रखा था। सभी घोड़ों पर लूट का सामान लदा हुआ था तथा बल्लभगढ़ से पकड़े गये स्त्री–पुरुष बंधे हुए थे। प्रत्येक आदमी के सिर पर कटे हुए सिरों की गठरियां रखी हुई थीं। वजीरे आजम अहमदशाह के सामने कटे हुए सिरों की मीनार बनायी गयी। जो लोग इन सिरों को अपने सिरों पर रख कर लाये थे, उनसे पहले तो चक्की पिसवाई गयी तथा उसके बाद उनके भी सिर काटकर मीनार में चिन दिये गये।<br />इसके बाद अहमदशाह अब्दाली मथुरा में घुसा। उस दिन होली के त्यौहार को बीते हुए दो ही दिन हुए थे। अहमदशाह ने माताओं की छाती से दूध पीते बच्चों को छीनकर मार डाला। हिन्दू सन्यासियों के गले काटकर उनके साथ गौओं के कटे हुए गले बांध दिये गये। मथुरा के प्रत्येक स्त्री–पुरुष को नंगा किया गया। जो पुरुष मुसलमान निकले उन्हें छोड़ दिया गया, शेष को मार दिया गया। मुसलमान औरतों की इज्जत लूट कर उन्हें जीवित छोड़ दिया गया तथा हिन्दू औरतों को इज्जत लूटकर मार दिया गया। मथुरा और वृंदावन में इतना रक्त बहा कि वह यमुना का पानी लाल हो गया। अब्दाली के आदमियों को वही पानी पीना पड़ा। इससे फौज में हैजा फैल गया और सौ–डेढ़ सौ आदमी प्रतिदिन मरने लगे। अनाज की कमी के कारण सेना घोड़ों का मांस खाने लगी। इससे घोड़ों की कमी हो गयी। बचे हुए सैनिक विद्रोह पर उतारू हो गये। इस कारण अहमदशाह को भरतपुर लूटे बिना ही अफगानिस्तान लौट जाना पड़ा। राजा सूरजमल अब्दाली की विशाल सेना के विरुद्ध कुछ नहीं कर सका।<br />चार साल बाद अब्दाली वापस भारत आया। इस बार मराठों और जाटों ने मिलकर उसका सामना करने की योजना बनायी। उन्होंने अब्दाली का मार्ग रोकने के लिये आगे बढ़कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। दिल्ली हाथ में आते ही मराठे तोतों की तरह आंख बदलने लगे। राजा सूरजमल के लाख मना करने पर भी मराठों ने लाल किले के दीवाने खास की छतों से चांदी के पतरे उतार लिये और नौ लाख रुपयों के सिक्के ढलवा लिये। सूरजमल स्वयं दिल्ली का शासक बनना चाहता था इसलिये उसे यह बात बुरी लगी और उसने मराठों का विरोध किया।<br />सूरजमल चाहता था कि दिल्ली के बादशाह आलमगीर द्वितीय को मार डाला जाये किंतु आलमगीर मराठा नेता कुशाभाऊ ठाकरे को अपना धर्मपिता कहकर उसके पांव पकड़ लेता था। सूरजमल आलमगीर से इसलिये नाराज था क्योंकि इस बार अब्दाली को भारत आने का निमंत्रण आलमगीर ने ही भेजा था ताकि सूरजमल को कुचला जा सके। कुशाभाऊ का आलमगीर के प्रति अनुराग देखकर सूरजमल नाराज होकर दिल्ली से भरतपुर लौट आया। <br />इसके बाद पानीपत के मैदान में इतिहास प्रसिद्ध पानीपत की पहली लड़ाई हुई। इस युद्ध में अब्दाली ने 1 लाख मराठों को काट डाला। कुशाभाऊ ठाकरे मारा गया। बचे हुए मराठा सैनिक प्राण लेकर भरतपुर की तरफ भागे। किसानों ने भागते हुए सैनिकों के हथियार, सम्पत्ति और वस्त्र छीन लिये। भूखे और नंगे मराठा सैनिक सूरजमल के राज्य में प्रविष्ठ हुए। सूरजमल ने उनकी रक्षा के लिये अपनी सेना भेजी। उन्हें भोजन, वस्त्र और शरण प्रदान की। <br />महारानी किशोरी देवी ने देश की जनता का आह्वान किया कि वे भागते हुए मराठा सैनिकों को न लूटें। मराठा सैनिकों को मेरे बच्चे जानकर उनकी रक्षा करें। महारानी किशोरी देवी ने मराठा शरणार्थियों के लिये भरतपुर में अपना भण्डार खोल दिया। उसने सात दिन तक चालीस हजार मराठों को भोजन करवाया। ब्राणों को दूध, पेड़े और मिठाइयां दीं। राजा सूरजमल ने प्रत्येक मराठा सैनिक को एक–एक रुपया, एक वस्त्र और एक सेर अन्न देकर अपनी सेना के संरक्षण में मराठों की सीमा में ग्वालिअर भेज दिया।</strong>Dr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-1451262925576892639.post-81991816599860461502010-01-01T17:46:00.001+05:302010-01-01T17:50:47.779+05:30कोई तो बताये मेरी गुलाब को किसने मारा?<p><span class=""></span> </p><p>ई। 1761 में मेवाड़ी सरदार सिसी फ्रांसिसी सेनापति समरू को मेवाड़ पर चढ़ा लाये। तब से महाराणा और उसके सरदारों में आपसी संघर्ष का जो सिलसिला चला वह रजवाड़ों के मिट जाने के बाद ही समाप्त हो सका।</p><p><br />जिस समय अंग्रेज शक्ति देशी राज्यों की घेराबंदी करने की योजना बना रही थी, उस समय राजपूताना के देशी राज्य अनेक आंतरिक एवं बाह्य समस्यओं से जूझ रहे थे जिनमें से सबसे बड़ी और अंतहीन दिखायी देने वाली समस्या थी। राज्यों के सामंतों तथा जागीरदारों की अनुशासन हीनता और लूट खसोट की प्रवृत्ति। सामंतों तथा जागीरदारों ने राजाओं की नाक में दम कर रखा था तथा अधिकांश राजा अपने सरदारों के उन्मुक्त आचरण का दमन करने में सक्षम नहीं थे।</p><p><br />देशी राज्यों में राजा के उत्तराधिकारी को लेकर खूनी संघर्ष होते रहेते थे जिनके कारण राज्य वंश के सदस्य, राज्य के अधिकारी एवं जागीरदार दो या दो से अधिक गुटों में बंटे रहते थे। इन सब कारणों से राजपूताना के देशी राज्यों की आर्थिक, राजनैतिक एवं सामरिक दशा अत्यंत शोचनीय हो गयी थी।<br />राजपूताना के रजवाड़े और उनके अधीनस्थ जागीरदारों में विगत एक शताब्दी से भी अधिक समय से जबर्दस्त संघर्ष की स्थिति बनी हुई थी। जागीरदार अपने निरंकुश व्यवहार का निशाना न केवल निरीह जनता को बनाते रहे थे अपितु वे रियासत के शासकों की भी उपेक्षा करके मनमाना व्यवहार करते रहे थे। </p><p><br />जोधपुर नरेश विजयसिंह की पूरी शक्ति अपने ही जागीरदारों को दबा कर रखने में व्यय हुई थी। ई। 1786 में उसने अपने जागीरदारों को मराठों से निबटने में असमर्थ जानकर नागों और दादू पंथियों की एक सेना तैयार की। ये लोग ‘बाण’ चलाने में बड़े दक्ष थे। इनकी मदद से विजयसिंह को काफी बल मिला किन्तु विदेशी सेना को मारवाड़ में देखकर सारे राजपूत सरदार बिगड़ गये और उन्होंने इके होकर विजयसिंह के विरुद्ध लड़ाई की घोषणा कर दी। </p><p><br />विजयसिंह उस समय तो किसी प्रकार सरदारों को मना लाया किन्तु बाद में उसने सरदारों को धोखे से कैद कर लिया। इनमें से दो सरदारों की कैद में मृत्यु हो गई और एक को बालक जानकर छोड़ दिया गया। इस घटना से सारे जागीदारों में सनसनी फैल गई और उन्होंने मारवाड़ में लूट मार मचा दी। बड़ी कठिनाई से विजयसिंह स्थित पर काबू पा सका। आउवा के ठाकुर जैतसिंह ने जब पशुवध निषेध की राजाज्ञा का पालन नहीं किया तो विजयसिंह ने किले में बुलाकर उसकी हत्या कर दी। </p><p><br />कुछ ही दिनों बाद जोधपुर राज्य के जागीरदारों ने षड़यंत्र पूर्वक राजा विजयसिंह की पासवान गुलाबराय की हत्या कर दी। राजा को इस घटना से इतना आघात पहुँचा कि वह पागलों की तरह जोधपुर की गलियों में भटकने लगा और मार्ग में मिलने वाले प्रत्येक आदमी से कहता– कोई तो बताये मेरी गुलाब को किसने मारा? इस पासवान के वियोग में राजा मात्र 46 वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त हुआ।</p><p><br />पोकरण ठाकुर सवाईसिंह ने अपने साथ पाली, बगड़ी, हरसोलाव, खींवसर, मारोठ, सेनणी, पूनलू आदि के जागीरदारों को अपने पक्ष में करके महाराजा मानसिंह के विरुद्ध लड़ाई आंरभ कर दी। जोधपुर नरेश मानसिंह को अपने सरदारों को दबाने के लिये पिण्डारी नेता अमीरखां की सेवाएं लेनी पड़ीं। अमीरखां के साथी मुहम्मद खां ने पोकरण, पाली और बगड़ी के ठाकुरों को मूण्डवा में बुलाया और धोखे से एक शामियाने में बैठाकर शामियाने की रस्सि्यां काट दीं तथा चारों तरफ से तोल के गोले बरसा दिये। उसने मृत ठाकुरों के सिर काटकर राजा मानसिंह को भिजवाये। इस घटना से सारे ठाकुर डर गये और उन्होंने महाराजा से माफी मांग ली।</p><p><br />उदयपुर में 1761 में अरिसिंह मेवाड़ का महाराणा हुआ। महाराणा होने के उपलक्ष्य में वह एकलिंगजी के दर्शनों के लिये गया। वहाँ से लौटते समय जब महाराणा का घोड़ा चीरवा के तंग घाटे तक पहुंचा, उस समय महाराणा के आगे कई सरदार और घुड़सवार चल रहे थे जिससे महाराणा के घोड़े को धीमे हो जाना पड़ा। इस पर महाराणा ने छड़ीदारों को आज्ञा दी कि मार्ग खाली करवाओ। छड़ीदारों ने मार्ग खाली करवाने के लिये सरदारों के घोड़ों को भी छडि़यां मारीं। सरदार लोग उस समय तो उस अपमान को सहन कर गये किंतु उन्होंने महाराणा को हटा कर उसके स्थान पर महाराणा के पिता जगतसिंह की अन्य विधवा, जो कि झाली रानी के नाम से विख्यात थी, उसके गर्भ में पल रहे बालक को महाराणा बनाने का संकल्प किया। सरदारों के इस आचरण से कुपित होकर महाराणा ने कई सरदारों की हत्या करवा दी। मेवाड़ी सरदार फ्रांसिसी सेनापति समरू को मेवाड़ पर चढ़ा लाये। तब से महाराणा और उसके सरदारों में आपसी संघर्ष का जो सिलसिला चला वह रजवाड़ों के मिट जाने के बाद ही समाप्त हो सका।</p><p><br />बीकानेर नरेश जोरावर सिंह की मृत्यु 1746 ई। में हुई। उसके कोई संतान नहीं थी अत: उसके मरते ही राज्य का सारा प्रबंध भूकरका के ठाकुर कुशालसिंह तथा मेहता बख्तावरसिंह ने अपने हाथ में ले लिया। उन दोनों ने राज्य का सारा कोष साफ कर दिया तथा बाद में जोरवारसिंह के चचेरे भाई गजसिंह से यह वचन लेकर कि वह उस समय तक के राज्यकोष का हिसाब नहीं मांगेगा, उसे गद्दी पर बैठा दिया। इससे अन्य सरदार शासक के प्रति द्वेष भाव रखने लगे। </p><p><br />बीकानेर जसवंतसिंह ने तो अपने बड़े पुत्र राजसिंह को राजद्रोह के अपराध में जेल में डाल रखा था। जब 1787 में जसवंतसिंह मरने लगा तो उसने राजसिंह को जेल से निकाल कर बीकानेर राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया। राजसिंह केवल 30 दिन तक राज्य करके मृत्यु को प्राप्त हुआ। राजसिंह का बड़ा पुत्र प्रतापसिंह उस समय नाबालिग था अत: बालक प्रतापसिंह को बीकानेर का राजा बनाया गया तथा सूरतसिंह को राज्य का संरक्षक नियुक्त किया गया। कुछ दिन बाद सूरतसिंह ने अपने हाथों से प्रतापसिंह का गला घोंट कर उसकी हत्या कर दी और स्वयं राजा बन गया। इससे राज्य के सारे सरदार सूरतसिंह के शत्रु हो गये और उसे उखाड़ फैंकने का उपक्रम करने लगे। </p><p><br />जयपुर नगर के निर्माता जयसिंह ने उदयपुर के राणा से प्रतिज्ञा की थी कि मेवाड़ की राजकुमारी से उत्पन्न होने वाला पुत्र जयसिंह के बाद आमेर राज्य का उत्तराधिकारी होगा किंतु जयसिंह की मृत्यु के बाद जयसिंह का सबसे बड़ा पुत्र ईश्वरीसिंह जयपुर राज्य की गद्दी पर बैठा। मेवाड़ की राजकुमारी से उत्पन्न माधोसिंह को टोंक, टोडा तथा तीन अन्य परगनों की जागीर दे दी गयी। इस पर माधोसिंह ने मेवाड़ तथा मराठों का सहयोग प्राप्त कर जयपुर राज्य पर आक्रमण कर दिया। ईश्वरीसिंह को आत्महत्या कर लेनी पड़ी तथा 1750 ईस्वी में माधोसिंह जयपुर की गद्दी पर बैठा।इसी प्रकार की बहुत सी घटनायें बूंदी, कोटा, डूंगरपुर बांसवाड़ा तथा अन्य राजपूत रियासतों में घटित हुईं थीं जिनके चलते राजाओं और जागीरदारों में संघर्ष की स्थिति चली आ रही थी। विद्रोही राजकुमारों तथा जागीरदारों को अपने ही शासकों का सामना करने की क्षमता राजपूताने में उपस्थित दो बाह्य शक्तियों से प्राप्त हुई थी। इनमें से पहली बाह्य शक्ति मराठों की थी तो दूसरी पिण्डारियों की।</p>Dr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1451262925576892639.post-40116758082323139222009-12-23T11:04:00.003+05:302009-12-23T11:12:51.643+05:30खोखर बड़ो खुराकी, खा गयो अप्पा जैसो डाकी<p><strong> ये मदमत्त मरहठे अपना स्वरूप भूलकर राजपूताने के क्षत्रियों को दु:ख न देते तो राजपूताने की एकाएकी वर्तमान दशा इतनी खराब न हुई होती।</strong></p><p><strong> </strong> – भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ई.1882 <br /><br />मुगल सत्ता के कमजोर हो जाने के बाद केंद्रीय स्तर पर राजनीतिक शक्ति की अनुपस्थिति की भरपाई करने के लिये मराठे सामने आये। उनके पाँच शक्तिशाली राज्य बनेे– पूना में पेशवा, नागपुर में भौंसले, इन्दौर में होल्कर, गुजरात में गायकवाड़ तथा ग्वालिअर में सिंधिया। यहाँ से वे लगभग पूरे उत्तरी भारत पर छा गये।<br />जब मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला ने मराठों को चौथ देना स्वीकार कर लिया तो पेशवा बाजीराव राजपूताने के राज्यों से भी चौथ मांगने लगा क्योंकि राजपूताना के राज्य मुगल सल्तनत के अधीन थे तथा उसे कर देते रहे थे। राजपूताने के राज्यों ने अलग–अलग रह कर स्वयं को मराठों से निबटने मेें असमर्थ पाया। इसलिये ई. 1734 में राजपूताने के शासकों ने हुरड़ा नामक स्थान पर एक सम्मेलन आयोजित किया जिसे हुरड़ा सम्मेलन भी कहते हैं। इस सम्मेलन में मराठों के विरुद्ध राजपूताने के राज्यों का संघ बनाया गया। शासकों द्वारा बातें तो बड़ी–बड़ी की गयीं किंतु इस संघ ने कोई कार्यवाही नहीं की।<br />ई. 1737 में कोटा में मराठों का प्रतिनिधि नियुक्त हुआ जो कोटा और बूंदी से चौथ वसूलने का काम करता था। उदयपुर एवं जयपुर ने भी पेशवा बाजीराव से संधि कर ली और कर देना स्वीकार कर लिया। जोधपुर नरेश विजयसिंह ने भी मराठों को चौथ देना स्वीकार किया।<br />मराठों ने मेवाड़ की बुरी गत बनायी। सिंधिया, होल्कर और पेशवा की सेनाओं ने मेवाड़ को जी भर कर लूटा जिससे राजा और प्रजा दोनों निर्धन हो गये। कर्नल टॉड के अनुसार मेवाड़ नरेश जगतसिंह से लेकर मेवाड़ नरेश अरिसिंह के समय तक मराठों ने मेवाड़ से 1 करोड़ 81 लाख रुपये नगद तथा 29.5 लाख रुपये की आय के परगने छीन लिये। यहाँ तक कि मराठों की रानी अहिल्याबाई ने केवल चिट्ठी से धमकाकर मेवाड़ से नींबाहेड़ा का परगना छीन लिया।<br />जब जयसिंह की मृत्यु के बाद ईश्वरीसिंह जयपुर का राजा हुआ तो जयसिंह की मेवाड़ी रानी से उत्पन्न राजकुमार माधोसिंह ने मेवाड़ तथा मराठों का सहयोग प्राप्त कर जयपुर राज्य पर आक्रमण कर दिया। राजा साहू, गंगाधर टांटिया तथा मल्हार राव होल्कर ने ईश्वरीसिंह को परास्त कर दिया तथा उससे संधि करने के बदले में बहुत बड़ी रकम मांगने लगे। ईश्वरीसिंह इस रकम को देने में असमर्थ था। जब मराठे जयपुर नगर के परकोटे के बाहर दिखायी देने लगे तो उनसे आतंकित होकर ईश्वरीसिंह ने आत्म हत्या कर ली। माधोसिंह जयपुर की गद्दी पर बैठा। होलकर और सिंधिया ने माधोसिंह से भारी रकम की मांग की जिसे पूरा करना माधोसिंह के वश में न था। इस पर 4000 मराठा सैनिक जयपुर में घुसकर उपद्रव करने लगे।<br />राजा को मराठों के विरुद्ध कार्यवाही करने में असमर्थ जानकर जनता ने विद्रोह कर दिया और 1500 मराठा सैनिकों को घेर कर मार डाला। माधोसिंह को मराठों से क्षमा याचना करनी पड़ी और उन्हें रुपया देकर विदा किया। इससे राज्य की आर्थिक स्थिति शोचनीय हो गयी। राजा की निर्बलता से उत्साहित होकर सामन्त राज्य की खालसा भूमि बलपूर्वक दबाने लगे। राज्य के सामन्तों में गुटबंदी होने लगी जिससे राज्य में घोर अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गयी।<br />मराठों ने मारवाड़ नरेश रामसिंह और विजयसिंह के बीच हुए झगड़े में हस्तक्षेप किया तथा रामसिंह के समर्थन में मारवाड़ पर आक्रमण कर दिया। उस समय राजा विजयसिंह नागौर के दुर्ग में था इसलिये मराठों के सरदार जयआपा ने ताऊसर में डेरा डाला तथा 31 अक्टूबर 1754 को नागौर का दुर्ग घेर लिया। जयआपा के पुत्र जनकोजी ने जोधपुर का दुर्ग जा घेरा। हरसोलाव का ठाकुर सूरतसिंह चांपावत, शोभायत गोरधन दास खींची तथा सुंदर आदि सरदार उस समय जोधपुर दुर्ग में थे। इसलिये उन्होंने जोधपुर दुर्ग का मोर्चा संभाला।<br />विजयसिंह ने नागौर दुर्ग में मराठों का सामना किया जाना संभव न जानकर मेवाड़ के महाराणा राजसिंह द्वितीय को मध्यस्थता करने का आग्रह किया। राजसिंह ने सलूम्बर के रावत जैतसिंह को संधि करवाने के लिये नागौर भेजा किंतु जैतसिंह को इस कार्य में सफलता नहीं मिली। मराठों का घेरा बहुत कड़ा था। वे दुर्ग में रसद पहुंचाने का प्रयास करने वालों के नाक कान व हाथ काट लेते थे। कई दिनों दिनों तक यही स्थिति रही। एक दिन खोखर केसर खां तथा एक गहलोत सरदार ने महाराजा से कहा कि इस तरह मरने से तो अच्छा है कि कुछ किया जाये। वे दोनों महाराजा की अनुमति लेकर व्यापारियों के वेश में मराठों की छावनी में दुकान लगाकर बैठ गये। एक दिन दोनों ने आपस में झगड़ना आरंभ कर दिया और लड़ते हुए जयआपा तक जा पहुँचे। जैसे ही वे जयआपा के निकट पहँुचे, उन्होंने जयआपा का काम तमाम कर दिया। इस सम्बन्ध में एक कहावत कही जाती है–<br />खोखर बड़ो खुराकी, खा गयो अप्पा जैसो डाकी ।<br />जयआपा के मारे जाने पर मराठों ने क्रुद्ध होकर नागौर दुर्ग पर धावा बोल दिया। विजयसिंह छुपकर दुर्ग से भाग गया। उसने बीकानेर के राजा गजसिंह के यहाँ शरण ली। 14 माह तक मराठे नागौर दुर्ग को घेरकर बैठे रहे। 2 फरवरी 1756 को दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ जिसके अनुसार जोधपुर, नागौर, मेड़ता आदि आधा मारवाड़ विजयसिंह के पास रहा तथा जालोर, मारोठ एवं सोजत रामसिंह के पास रहे।<br />1790 में एक बार फिर मराठों ने ैंच अधिकारी डी बोईने की अध्यक्षता में एक सेना को मारवाड़ पर आक्रमण करने भेजा। मारवाड़ की सेना ने मेड़ता के बाहर ैंच सेनापति का सामना किया। इस युद्ध में ैंच सेना की जीत हो गयी। इसके बाद बोईने ने जोधपुर के दुर्ग को आ घेरा। इस पर विजयसिंह ने मराठों को चौथ देना स्वीकार कर किया तथा उन्हें अजमेर समर्पित कर दिया।<br />कोटा के दीवान जालिमसिंह ने मराठों से सहयोग एवं संधि का मार्ग अपनाया। भरतपुर के जाट राजा ने मराठों के सहयोग से अपनी शक्ति बढ़ाई। बीकानेर राज्य मराठों के आक्रमण से अप्रभावित रहा।<br />राजपूताने के राजा मराठा शक्ति से इतने संत्रस्त थे कि अहमदशाह अब्दाली द्वारा ई. 1761 में पानीपत के मैदान में 1 लाख मराठों का वध कर दिये जाने के उपरांत भी राजपूताने के शासक कोई लाभ नहीं उठा सके और अपने राज्यों से मराठों को बाहर नहीं धकेल सके।<br />ई. 1818 में कर्नल टॉड मेवाड़ से होकर गुजरा। उसने उस समय के राजपूताने की दशा का वर्णन करते हुए लिखा है– ‘‘जहाजपुर होकर कुंभलमेर जाते समय मुझे एक सौ चालीस मील में दो कस्बों के सिवा और कहीं मनुष्य के पैरों के चिह्न तक नहीं दिखाई दिये। जगह–जगह बबूल के पेड़ खड़े थे और रास्तोंं पर घास उग रही थी। उजड़े गावों में चीते, सूअर आदि वन्य पशुओं ने अपने रहने के स्थान बना रखे थे। उदयपुर में जहाँ पहले पचास हजार घर आबाद थे अब केवल तीन हजार रह गये थे। मेर और भील पहाडि़यों से निकल कर यात्रियों को लूटते थे।’’ई. 1882 में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र मेवाड़ आये। उपने यात्रा प्रसंग में उन्होंने लिखा है– ‘‘ये मदमत्त मरहठे अपना स्वरूप भूलकर राजपूताने के क्षत्रियों को दुख न देते तो राजपूताने की एकाएकी वर्तमान दशा इतनी खराब न होती।’’ इस मराठा शक्ति के विरुद्ध राजपूताना कभी एक नहीं हो सका और अपनी रक्षा के लिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ओर ताकता रहा।</p>Dr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1451262925576892639.post-85141708172129231942009-12-22T17:44:00.000+05:302009-12-22T17:45:05.127+05:30जहांगीर के सामने मामूली सूबेदारनी दिखती थी इंगलैण्ड की महारानी<p align="center"><strong>मैं आपको (इंगलैण्ड के राजा को) विश्वास दिलाता हूँ कि इन लोगों (भारतीयों) के साथ सबसे अच्छा व्यवहार तभी किया जा सकता है जब एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में संवादवाहक की छड़ी हो। - सर टॉमस रो, ई। 1619 </strong></p><strong><p><br /></strong>भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का आगमन ई. 1600 में हुआ जब 24 अगस्त को सूरत के मामूली से बंदरगाह पर अंग्रेजों के व्यापारिक जहाज ''हेक्टर'' ने लंगर डाला। जहाज का कप्तान विलियम हॉकिंस नाविक कम लुटेरा अधिक था। वह सूरत से आगरा की ओर चला जहाँ उसकी भेंट बादशाह जहांगीर से हुई। हॉकिंस की दृष्टि में बादशाह जहांगीर इतना धनवान और सामर्थ्यवान था कि उसकी अपेक्षा इंग्लैण्ड की रानी अत्यंत साधारण सूबेदारिन से अधिक नहीं ठहरती थी।<br />अंग्रेज इस देश में आये तो व्यापारिक उद्देश्यों से थे किंतु उन्होंने अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये एक हाथ में धर्म का झण्डा और दूसरे हाथ में तलवार थाम रखी थी। हॉकिन्स जहांगीर के दरबार में उपस्थित हुआ। जहांगीर ने उसे 400 का मन्सब तथा एक जागीर प्रदान की।<br />1615 में सर टामस रो ने अजमेर में जहांगीर के समक्ष उपस्थित होकर भारत में व्यापार करने की अनुमति मांगी। जहांगीर ने अंग्रेजों को बम्बई के उत्तर में अपनी कोठियां खड़ी करने और व्यापार चलाने की अनुमति प्रदान की। शीघ्र ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दो जहाज प्रति माह भारत आने लगे। वे जो माल इंग्लैण्ड ले जाते थे वह अत्यधिक ऊंचे दामों पर बिकता था।<br />इतिहासकारों का मानना है कि लगभग एक सौ पचास वर्षों तक अंग्रेज व्यापारीृ ही बने रहे। यह सही है कि इस काल में उन्होंने 'व्यापार, न कि भूमि' की नीति अपनाई किंतु वे नितांत व्यापारी बने रहे यह बात सही नहीं है। ई. 1619 में सर टॉमस रो ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सलाह दी- ''मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इन लोगों के साथ सबसे अच्छा व्यवहार तभी किया जा सकता है जब एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में संवादवाहक की छड़ी हो।'' पूरे डेढ़ सौ साल तक अंग्रेज शक्ति इस सलाह पर अमल करती रही।<br />मुगलों के अस्ताचल में जाने एवं पुर्तगाली, डच तथा फ्रैंच शक्तियों को परास्त कर भारत में अपने लिये मैदान साफ करने में अंग्रेजों को अठारहवीं सदी के मध्य तक प्रतीक्षा करनी पड़ी।<br />23 जून 1757 के प्लासी युध्द के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत में प्रथम बार राजनीतिक सत्ता प्राप्त हुई। इसके बाद अंग्रेजों ने अपनी नीति 'भूमि, न कि व्यापार' कर दी। ई. 1765 के बक्सर युध्द के पश्चात् हुई इलाहाबाद संधि के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी पूर्णत: राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित हुई।<br />गांधीजी के सहयोगी प्यारेलाल ने लिखा है- ''इतिहास के विभिन्न कालों में ब्रिटिश नीति में कई परिवर्तन हुए किंतु भारत में साम्राज्यिक शासन को बनाये रखने का प्रमुख विचार, उन परिवर्तनों को जोड़ने वाले सूत्र के रूप में सदैव विद्यमान रहा है। यह नीति तीन मुख्य चरणों से निकली है जिन्हें घेराबंदी, अधीनस्थ अलगाव तथा अधीनस्थ संघ कहा जाता है। राज्यों की दृष्टि से इन्हें 'ब्रिटेन की सुरक्षा', 'आरोहण' तथा 'साम्राज्य' कहा जा सकता है।''<br />प्यारे लाल लिखते हैं- ब्रिटिश नीति के प्रथम चरण (1765-98) में नियामक विचार 'सुरक्षा' तथा 'भारत में इंगलैण्ड की स्थिति' का प्रदर्शन' था। इस काल में कम्पनी अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रही थी। यह चारों ओर से अपने शत्रुओं और प्रतिकूलताओं से घिरी हुई थी। इसलिये स्वाभाविक रूप से कम्पनी ने स्थानीय संभावनाओं में से मित्र एवं सहायक ढूंढे। इन मित्रों के प्रति कम्पनी की नीति चाटुकारिता युक्त, कृपाकांक्षा युक्त एवं परस्पर आदान-प्रदान की थी।<br />ईस्वी 1756 से 1813 तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने देशी राज्यों के प्रति 'घेरा डालने की नीति' अपनायी। इस अवधि में देशी रियासतों के साथ समानता और स्वतंत्रता के आधार पर समझौते किये गये और इनमें परस्पर कार्य का विचार रखा गया। एल्फिंस्टन के अनुसार भारतीय रियासतों को इसलिये सहन किया गया था क्योंकि वे उन लोगों के लिये शरणस्थल थीं जिनकी युध्द, षड़यंत्र और लूट-मार की आदत उन्हें ब्रिटिश भारत में शांतिपूर्ण नागरिकों के रूप में नहीं रहने देती थी।<br />क्लाइव (1758-67) ने मुगल सत्ता की अनुकम्पा प्राप्त की। वारेन हेस्टिंग्स (1772-1785) ने अपने काल के अन्य दूसरे ब्रिटिश शासकों की भांति स्थानीय शक्तियों की सहायता से विस्तार की नीति अपनाई।<br />ई. 1784 के पिट्स इण्डिया एक्ट में घोषणा की गयी थी कि किसी भी नये क्षेत्र को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के क्षेत्र में जबर्दस्ती नहीं मिलाया जायेगा किंतु ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस नीति का अनुसरण कभी नहीं किया।<br />लार्ड कार्नवालिस (1786-1793) तथा सर जॉन शोर ने देशी राज्यों के प्रति 'अहस्तक्षेप की नीति' अपनायी। इस नीति को अपनाने के पीछे उनका विचार मित्र शक्तियों की अवरोधक दीवार खड़ी करने तथा जहाँ तक संभव हो विजित मित्र शक्तियों की घेरेबंदी में रहने का था। लॉर्ड कार्नवालिस (ई. 1805) तथा बारलो (1805-1807) ने देशी रियासतों की ओर से किये जा रहे संधियों के प्रयत्नों को अस्वीकृत भी किया विशेषत: जयपुर के मामले में। इस समय तक राजपूताने की रियासतें मराठा और पिण्डारियों का शिकार स्थल बनी हुई थीं जो भारत में ब्रिटिश सत्ता के प्रतिद्वंद्वी थे।<br />शीघ्र ही अनुभव किया जाने लगा कि यदि स्थानीय शक्तियों की स्वयं की घेरेबंदी नहीं की गयी तथा उन्हें अधीनस्थ स्थिति में नहीं लाया गया तो अंग्रेजों की सुरक्षा खतरे में पड़ जायेगी। इससे प्रेरित होकर लॉर्ड कार्नवालिस ने आधा मैसूर राज्य ईस्ट इण्डिया कम्पनी के क्षेत्र में मिला लिया।<br />लॉर्ड वेलेजली (ई. 1798 से 1805) के काल मेें ब्रिटिश नीति का अगला चरण आरंभ हुआ। इस चरण (1798-1858) में 'सहयोग' के स्थान पर 'प्रभुत्व' ने प्रमुखता ले ली। लार्ड वेलेजली ने 'अधीनस्थ संधियों' के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता को समस्त भारतीय राज्यों पर थोपने का निर्णय लिया ताकि अधीनस्थ राज्य ब्रिटिश सत्ता के विरुध्द किसी तरह का संघ न बना सकें। उसने मेसूर राज्य का अस्तित्व ही मिटा दिया तथा ''सहायता के समझौतों'' से ब्रिटिश प्रभुत्व को और भी दृढ़ता से स्थापित कर दिया। लॉर्ड वेलेजली ने प्रयत्न किया कि राजपूताने के राज्यों को ब्रिटिश प्रभाव एवं मित्रता के क्षेत्र में लाया जाये किंतु उसमें सफलता नहीं मिली। सन् 1803 में लॉर्ड लेक ने जोधपुर राज्य के साथ जो समझौता लागू किया वह कभी लागू न हुआ। कोनार्ड कोरफील्ड ने लिखा है- ई. 1805 तक लगभग संपूर्ण भारत ब्रिटिश नियंत्रण द्वारा आच्छादित कर लिया गया था। जो रियासतें ब्रिटिश साम्राज्य से संलग्न होने से बच गयी थीं, उनके लिये वेलेजली ने अधीनस्थ संधि की पध्दति निर्मित की। इस पध्दति में शासक रियासत के आंतरिक प्रबंध को अपने पास रखता था किंतु बाह्य शांति एवं सुरक्षा के दायित्व को ब्रिटिश शक्ति को समर्पित कर देता था। </p>Dr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1451262925576892639.post-48696823596880920332009-12-21T16:34:00.002+05:302009-12-21T16:41:05.893+05:30गोरा हट जा<div align="center"><strong><span class="">गोरा हट जा </span></strong></div><div align="center"><strong>Told and untold stories of rajput princes</strong></div><strong>जब तक इंगलैण्ड के मुकुट में भारत रूपी हीरा जड़ा हुआ है तब तक इंगलैण्ड को कोई पछाड़ नहीं सकता। किंतु इसकी कीमत हम तब तक नहीं समझेंगे जब तक कि हम इसे खो न देंगे। – लॉर्ड कर्जन</strong><br />सिकंदर के भारत में आने से भी बहुत पहले, रोम के शासक ने कहा था भारतीयों के बागों में मोर, उनके खाने की मेज पर कालीमिर्च तथा उनके बदन का रेशम, हमें पागल बना देता है। हम इन चीजों के लिये बर्बाद हुए जा रहे हैं।<br />एलेक्जेण्ड्रिया के सिकंदर से लेकर, शक, कुषाण, हूण, ईरानी, तूरानी, अफगानी, मुगल, मंगोल, पुर्तगाली, डच तथा french आदि अनेकानेक जातियां भारत में घुसीं। बहुतों के तो अब इतिहास भी मिट गये। किसी को हाथी चाहिये थे तो किसी को चंदन की लकड़ी। किसी को नील की ललक थी तो किसी को कपास की। किसी को सोना चाहिये था तो किसी को गरम मसाले। किसी को दशरथ नंदन राम ने लुभाया था तो किसी को यशोदा नंदन कृष्ण ने।<br />सब आये और सबने पाया। जो आये वो वापस नहीं गये। या तो यहीं के होकर रह गये या वापसी के प्रयास में मारे गये। सबसे अंत में आने वाले अंग्रेज थे जो मोर, काली मिर्च या रेशम के लिये नहीं अपितु भारत के कण–कण से वह सब कुछ ले जाने के लिये आये थे जो उनके प्यारे इंगलैण्ड को संसार का सबसे धनी देश बना दे। इंगलैण्ड ने भारत से वो सब कुछ लूटा जो उसे कहीं और से नहीं मिला था।<br />भारत इंगलैण्ड की रानी के मुकुट में जड़ा हुआ सबसे कीमती हीरा था। उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि एक दिन उन्हें भारत से वापस जाना पड़ेगा किंतु इतिहास कभी एक बिंदु पर नहीं ठहरता, वह चलता रहता है। इतिहास ने अंग्रेजों के भारत से वापस जाने की तिथि भी निश्चित कर रखी थी। एक दिन उन्हें भीगी आंखों, दिल में उठती सिसकियों और उफनती भावनाओं को लेकर यहां से वापस जाना ही पड़ा। राजपूतना रियासतों में उनके आने और जाने की कहानी है– गोरा हट जा!<br />– डॉ. मोहनलाल गुप्ता<br />63, सरदार क्लब योजना,<br />वायुसेना क्षेत्र, जोधपुरDr. Mohanlal Guptahttp://www.blogger.com/profile/14804752307502533855noreply@blogger.com1